Category: अगला-कदम

भेद-विज्ञान

भेद-विज्ञान दिखता है । भेद करके ज्ञान करना ही सच्चा विज्ञान/ भेेेद-विज्ञान हैै । भेद पहले बाह्य पदार्थों से, फिर आत्मा और कर्मों में करना

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तीर्थंकर-प्रकृति

यह पाप को निर्जरित करती है* । यह भी औदायिक-कर्म है, पर मांगलिक है । जबकि बाकि सब औदायिक-कर्म अमांगलिक होते हैं । आचार्य श्री

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जलकाय

प्रासुक जल करने में आरंभिक हिंसा स्थावर जीवों की है, जो श्रावक हर क्रिया (भोजनादि) में करता ही रहता है । पर श्रावक हिंसा करने

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विभंगावधि / मरण

विभंगावधि* के साथ मरण नहीं होता । मरण आने पर विभंगावधि छूट जाता है । * प्राकृत-भाषा में विहंगावधि कहते हैं आर्यिका श्री विज्ञानमति माताजी

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स्व-पर

अन्य द्रव्यों में परिणाम – यदि शुभ तो पुण्य, अशुभ तो पाप । स्वयं में परिणाम – दु:खों का क्षय । मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

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प्रतिक्रमण

घर में रह रहे व्रती को प्रतिक्रमण करने को नहीं कहा क्योंकि वे प्रायश्चित/प्रत्याख्यान नहीं कर सकते । फिर भी कोई प्रतिक्रमण करता है तो

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भाव / उपयोग

भाव (शुभ/अशुभ) मन के, उपयोग आत्मा का । भाव से उपयोग, शुभ उपयोग तो भाव शुभ, पर भाव शुभ तो उपयोग शुभ हो भी या

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अभव्य और केवलज्ञान

अभव्य के अंदर भी केवलज्ञान विद्यमान है तभी तो वह केवलज्ञानावरण कर्म बांधता है । बस प्रकट नहीं कर सकता है । मुनि श्री सुधासागर

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क्षुद्र-भव

सबसे छोटी आयु (एक साँस में १८ बार जन्म/मरण) वाले भव को क्षुद्र-भव कहते हैं । मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

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आकाश और रंग

आकाश वैसे तो अरूपी/वर्ण रहित है । पर यह पुदगल पिंड़ों से भरा हुआ है, सो चाँदनी रात में दूधिया, सूर्य से लाल/पीला, रात को

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मंगल आशीष

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