Category: अगला-कदम
निर्विकल्प समाधि और केवलज्ञान
निर्विकल्प समाधि में ज्ञान – तात्कालिक, क्षयोपशमिक, एकांकी (जब आत्मा का ज्ञान, तब बाहर का नहीं) । केवलज्ञान – शाश्वत, क्षायिक, अनेकांकी होता है ।
मोहनीय / सुख
मोहनीय तो 10वें गुणस्थान के अंत में समाप्त हो जाता है तो अनंत सुख 11, 12, गुणस्थान में क्यों नहीं ? क्योंकि ज्ञान पर आवरण
असंज्ञी का ज्ञान
असंज्ञी का मतिज्ञान भी धारणा तक होता है । वे इंद्रियों की सहायता तथा भाव-श्रुत से (संज्ञाओं के उदय में) सारे काम करते हैं ।
ज्ञेयत्व
1. क्रोध के कारण ज्ञेय पदार्थ का क्रोधी ना होना, जैसे अग्नि से दर्पण गरम ना होना । 2. क्रोध का निमित्त पा आत्मा का
हेय / उपादेय
छूटने की अपेक्षा तो शुद्धोपयोग भी हेय है । पर सब हेय छोड़ने योग्य नहीं होते, क्योंकि शुद्धोपयोग केवलज्ञान में कारण है । ऐसे ही
अज्ञान
अज्ञान केवल दर्शनमोहनीय के कारण ही नहीं होता, बल्कि… चारित्र मोहनीय के कारण भी होता है, जैसे भरत चक्रवर्ती को । आचार्य श्री विद्यासागर जी
योग / ध्यान
ईर्यापथ-आश्रव में योग, ध्यान की अपेक्षा कहा है । आचार्य श्री विद्यासागर जी
क्षयोपशम भाव
1 से 12 गुणस्थान तक । क्षयोपशम सम्यग्दर्शन के सद्भाव में, क्षयोपशम सम्यग्दर्शन की अपेक्षा – 4 से 7 गुणस्थान में । तीसरे गुणस्थान में
आयुकर्म
अप्रमत्त* के ही आयुकर्म की उदीरणा नहीं है बाकी सब (निचले गुणस्थान वाले) तो आयुकर्म का अपव्यय ही करते हैं । आचार्य श्री विद्यासागर जी
आहारक में प्राण/पर्याप्तियाँ
आहारक शरीर बनते समय 10 प्राण ही रहेंगे क्योंकि जब आहारक – शरीर नामकर्म का उदय होता तब औदारिक का उदय नहीं रहेगा । ऐसे
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