Category: अगला-कदम

भाव

एक जीव के – कम से कम : पारिणामिक, क्षायोपशमिक तथा औदायिक – तीन भाव होते हैं, अधिक से अधिक : पांचों के पांचों भाव

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निगोद

अनित्य/इतर/चतुर्गति निगोद-    अन्य पर्यायों में जन्म लेकर पुन: निगोद में जाते हैं (जैसे हम लोग) । अनित्य/अनादि-सान्त निगोद-   अभी वे जीव निगोद में हैं, पर अन्य

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निगोदिया जीव

बादर निगोदिया – निगोद से निकल कर, मनुष्य बनकर मोक्ष जा सकते हैं । (जैसे भरत चक्रवर्ती के पुत्र) सूक्ष्म निगोदिया – मनुष्य बनकर, पांचवें

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श्वासोच्छ्वास का काल

जघन्य श्वासोच्छ्वास का काल एकेन्द्रिय जीवों के होता है, उत्कृष्ट श्वासोच्छ्वास सर्वार्थसिद्धि के देवों के होता है, उत्कृष्ट काल, जघन्य से संख्यात गुणा होता है

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नि:कांक्षित

जब वांक्षा नहीं, तो वांक्षा-जन्य कर्म-बंध भी नहीं होगा, किन्तु पूर्व-कर्मों की निर्जरा होगी । आचार्य श्री विद्यासागर जी (समयसार-245 )

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निर्विचिकित्सा

घृणा न होने से तथा अपितु वस्तु के स्वरूप को ध्यान रखने से कर्म-बंध नहीं होता, पर निर्जरा होती है । आचार्य श्री विद्यासागर जी

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निगोदिया

एक शरीर में अनंत निगोदिया, बादर निगोदियों की अपेक्षा से कहा गया है । बादर जीव ही किसी के आधार से रहते हैं । सुक्ष्म

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बंधन/संघात

तैजस तथा कार्मण शरीरों में बंधन तथा संघात, कर्म वर्गणाओं को बांधते हैं तथा Plastering करते रहते हैं ।

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लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य

प्रश्न : क्या लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य सैनी कहे जा सकते हैं ? उत्तर : लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य जीव के पर्याप्तियां तो पूरी नहीं होतीं । इसलिये भाव

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मंगल आशीष

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