Category: वचनामृत – अन्य
एकाग्रता
एकाग्रता यानि एक को अग्र बना कर ध्यान करना । केन्द्र पर केन्द्रित करो, परिधि पर सब तुम्हारे चक्कर काटेंगे । मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
सत्य
भगवान ने सत्य बोलने को तो कहा, पर हितकारी असत्य बोलने की मनाही भी नहीं की । मुनि श्री अविचलसागर जी
कर्म कटना/बंधना
कौन से कर्म बढ़ रहे हैं इसका पता कैसे लगे ? क्रिया करने के बाद यदि सुकून/आनंद आ रहा है तो शुभ-कर्म बढ़ रहे हैं,
बोझ / वज़न
बोझ को स्वीकारते ही वह वज़न बन जाता है, बोझ नहीं लगता है । मुनि श्री प्रमाणसागर जी
शास्त्र / गुरु
शास्त्र तो मित्रवत होते हैं पर गुरु शत्रुवत व्यवहार करते दिखते हैं । मुनि श्री सुधासागर जी
वेषभूषा
जब एक केस की फ़रियाद के लिये वकीलों को (गर्मियों में भी) काली Uniform पहननी होती है तो असंख्यात गुनाहों की फ़रियाद के लिये (भगवान
उत्साह
उत्साह का जीवन में वही Role है जो किसी भी गाड़ी के पहियों में हवा का । गाड़ी का इंजन चाहे कितना ही शक्तिशाली क्यों
शुद्ध / विशुद्ध
शुद्ध शब्द का प्रयोग चीजों के लिये जैसे कपड़े, शरीर, भोजन । विशुद्ध चीजों का प्रयोग भावों के लिये । मुनि श्री सुधासागर जी
वाणी
वाणी में ओज, मृदुता/माधुर्य और प्रसाद (फल) होना चाहिये, ख़ासतौर पर सल्लेखना के समय । मुनि श्री सुधासागर जी
गृहस्थ
जो गृह में स्थित हो, वह “गृहस्थ”। गृहस्थ शब्द प्राकृत भाषा में “घरत्थ“* से आया है । मुनि श्री प्रणम्यसागर जी *प्रवचनसार गाथा – 291
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