दया/ क्षमा धर्म कैसे ?
धर्म की अंतिम परिभाषा –> वस्तु का स्वभाव ही धर्म है।
दया/ क्षमा आत्मा का स्वभाव है, इस अपेक्षा से दया/ क्षमा धर्म हुआ।
चिंतन
धम्मो वत्थुसहावो,
खमादिभावो दसविहो धम्मो।
रयणत्तयो च धम्मो,
जीवाणु रक्खणो धम्मो।।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा
धर्म क्षमा आदि दशविध ( दस लक्षण वाला) है।
यह दूसरी परिभाषा हुई।
कमल कांत
भटके हुए पथिक को श्रद्धा साधु पर ही होगी।
वही रास्ता किसी गुंडे ने बताया हो पर उस पर नहीं होगी।
रास्ते पर आगे चल कर कोई परिचित भटका भी सकता है, स्थिरता तो अपने अनुभव से ही आयेगी।
क्षु.श्री जिनेन्द्र वर्णी जी (शांतिपथ प्रदर्शक)
पूरा जीवन भगवान से प्रार्थना करते रहे…. (शांति दो – शांति दो)
शांति मिली ?
नहीं।
मिलती तब जब भगवान ने अशांति दी होती।
अशांति तो हमने खुद पैदा की है, हमको ही तो इसका समाधान ढ़ूंढ़ना होगा!
श्री दलाई लामा
आदमी की कमाई में परिवारजनों/ सेवकों का भाग्य भी होता है।
कमाने वाला व अन्य सब अपने-अपने भाग्य के अनुसार खाते/ पहनते/ भोगते हैं।
(सुरेश)
जो अंतर्ध्वनि/ धर्म के अनुसार कियायें करते हैं जैसे परोपकार/ दया, उनकी आत्मा शांत/ आनंदित रहती है;
विपरीत कियायें करने वालों की अशांत, तभी तो Lie Detector की पकड़ में आ जाते हैं।
क्षु.श्री जिनेन्द्र वर्णी जी (शांतिपथ प्रदर्शक)
Religion is the clearest telescope through which we can behold the beauties of creation.
William Scott Downey
एक लोभी सेठ ने साधु की झोली में एक रुपया डाला। शाम को उसकी तिजोरी में एक हीरा बन गया|
अगले दिन सेठ ने झोली में बहुत सारे रुपये डाल दिये। शाम को कुछ नहीं हुआ। दुखी सेठ को सेठानी ने कहा –
सबक लीजिये → “त्याग फलता है, लोभ छलता है।“
रेनू जैन- नया बाजार मंदिर, ग्वालियर
आचार्य श्री विद्यासागर जी के पास एक संभ्रांत व्यक्ति आये।
बोले –> मेरे पास अपार धन है पर दान देने के भाव नहीं होते।
आचार्य श्री –> भाव पूजा/ आहार दान करो, पर best सामग्री की कल्पना करके।
वह भी नहीं कर पा रहा।
लगता है दुर्गति में जाने की तैयारी है। अब तो द्रव्य (धनादि) दान से ही पापोदय समाप्त होगा।
इस झटके का फल हुआ कि धीरे-धीरे उन्होंने अपना सारा धन दान कर दिया और समाधिपूर्वक अंत को प्राप्त किया।
मुनि श्री विनम्रसागर जी
संयम तप
- अशुभ की ओर जाने से रोकना ***** शुभ की ओर से भी
- कपूत/ बेईमानी का त्याग *******सपूत/ ईमानदारी की कमाई का भी
- स्वर्ग ले जायेगा ********** मोक्ष
- शुभ कर्म–बंध ********** कर्म बंद(समाप्त)
(जब तक छोड़ नहीं सकते कम करें)
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
जो नारी (नाड़ी तथा जिस नारी ने जन्म दिया) जन्म से साथ रहीं, वे साथ छोड़ गयीं, तो हमारे जीवन में बाद में आयी नारी से कैसे आशा रखी जा सकती कि वह अंत तक साथ नहीं छोड़ेगी !
आचार्य श्री विद्यासागर जी
पूजादि, जिनवाणी (धार्मिक पुस्तक) को हाथ में लेकर करनी चाहिये।
क्योंकि –>
1. गलत नहीं पढ़ेंगे, सो अनादर नहीं होगा।
2. घमंड नहीं होगा कि मुझे पूरा याद है।
3. ज्यादा देर जिनवाणी हाथ में रहेगी तो शुभ-भाव रहेंगे।
बाहुवली शास्त्री-सांगानेर
विनय करने को कहा, तो ‘अविनय नहीं करना’, कहने की क्या आवश्यकता थी ?
सद्गुणों की विनय करें, किंतु कमजोरीयों की अविनय भी नहीं करें।
चिंतन
1. सरल –> सामान्य/ अज्ञानी/ रागी गृहस्थ करता है पर दुःख का कारण।
2. कृत्रिम –> नाटक में… ज्ञानी/ समझदार करता है, सब संतुष्ट। जब तक संसार में हैं, यह धर्म में भी आगे बढ़ायेगा।
3. कुटिल –> गलत अभिप्राय के साथ जैसे Suspense सिनेमा में।
चिंतन
मर्जी उन्हीं की जिन्हें मर्ज़ होता है (वे ही ज़िद करते हैं/ अड़ियल होते हैं)।
भगवान की मर्जी ही तेरी अर्ज़ी।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
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