आलोचना से लोचन खुलते हैं ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

इसलिये आलोचना का स्वागत करो (स्व+आगत)(अच्छे से बुलाना – पं.रतनलाल बैनाडा जी),
स्व का हितकारी/प्रिय मानकर ।

मुनि श्री सुधासागर जी

परोपकार नाम की कोई चीज़ नहीं होती, हम तो स्व पर उपकार करते हैं,
सामने वाला अपने पुण्य से अपना काम करा लेता है ।
(ऐसे ही अपकार नाम की कोई चीज़ नहीं होती, हम अपने पापोदय से अपना काम ख़राब करा लेते हैं, सामने वाले से/ सामने वाले को निमित्त बना कर)

अचानक ये पहाड़ी कैसे बन गयी,
पिछले 5-10 सालों में तो दिखती नहीं थी ?
यह दिल्ली के कूड़े का ढेर (गाजीपुर) है,
जो वातावरण के स्वच्छ होने से दिखने लगा है ।

Moral….
विचार स्वच्छ होने पर ही अपने मन की गंदगी दिखती है ।

चिंतन

और जैसे-जैसे मन की गंदगी कम होती जाती है, श्वेत(हिमालय की श्रंखला)/ शुद्धता द्रष्टिगोचर होती जाती है जैसा कमल जी ने अपनी टिप्पणी (नीचे) में चिंतन दिया है ।

इनमें चमत्कार नहीं सुने, चाहे मंदिर सोने/चांदी के ही क्यों न हों ।
कारण ?
1. घरों में इतनी पवित्रता नहीं रह सकती,
2. बहुत कम लोगों की भक्ति, इन मंदिरों से जुड़ पाती है ।

मुनि श्री सुधासागर जी

The tendency to follow the path of least resistance guarantees failure in life.

इसीलिए भगवान महावीर ने महलों की आरामदायक जिंदगी छोड़ कर जंगलों का सबसे कठिन रास्ता चुना और सफलता प्राप्त कर मोक्ष पाया ।

किसी के/सबके भले के लिए शांति की भावना भाने से उसका/सबका भला हो सकता है, क्योंकि उसके जीवन में परेशानी आने से हमको अशांति होती है ( यदि उनसे हमारा संबंध हो तो )
यदि उनसे हमारा संबंध नहीं है तब हमारे दया के भाव होने से हमारा भला तो होगा ही ।

ऐसी आपदा में शांति-धारा से तो शांति प्राप्त होती, फिर मंदिर क्यों बंद किये गये ?
आग लगने पर जल-धारा डालने से शांति होती है, पर मंदिरों में संक्रामक बीमारी फैला कर फिर शांति-धारा करना कहाँ की बुद्धिमत्ता होती !

मुनि श्री प्रमाण सागर जी (29.3.20)

गुरु/धर्म कह-कह कर थक गए कि… “करो ना, करो ना”(*),
यदि कर लिया होता, तो आज यह न कहना पड़ता कि…
“करो ना”(**)
(*)…..जो करने योग्य/ करना चाहिए था
(**)…बाह्य/ क्रियात्मक मत करो

चिंतन

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