संसार की ऊर्जा को जीव तथा अजीव दोनों ही ग्रहण कर सकते हैं। जीव द्वारा ग्रहण तो दिखता है। अजीव में जैसे किसी स्थान में यदि नीचे हड्डियां आदि हों तो उस स्थान से नकारात्मकता प्रकट होने लगती है।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (शंका समाधान – 44)

आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा था…
यदि तुम प्रभु के पीछे-पीछे हो लोगे, हो लोगे तो निश्चित ही अपने पाप कर्म को धो लोगे, धो लोगे।

आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी (24 दिसम्बर ’24)

(Renu- Naya Bazar Gwalior)

(Sand Time Clock में समय पूर्ण होने पर पूरी रेत ऊपर से नीचे गिर कर जाती है।
हमारे जीवन में वैभव मुट्ठी से फिसलती रेत ही तो है जो समय/ आयु पूर्ण होने पर मिट्टी/ कब्र में दफ़न हो जायेगा)।

श्वेताम्बर परम्परानुसार महावीर स्वामी जब संन्यास लेने लगे तब उनकी पुत्री ने रोका।
बच्ची को समझाने महावीर स्वामी ने कह दिया → मैं जल्दी लौट आऊँगा।
बेटी → पर तब तो तुम परमात्मा बन कर लौटोगे, मुझे तो पिता चाहिये।

मोह अपना मतलब सिद्ध करता है।

ब्र. डॉ. नीलेश भैया

पाप का घड़ा छोटा होता है, जल्दी भरकर फूट जाता है।
पुण्य का अनंत क्षमता वाला (मोक्ष की अपेक्षा), कभी फूट ही नहीं सकता।

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

आचार्य श्री विद्यासागर जी से पूछा मोक्षमार्ग कैसा है ?
आचार्य श्री… मोक्षमार्ग टेढ़ा-मेढ़ा है।
फिर मोक्ष जाने के लिए कौन सा मार्ग पकड़ें ?
जिस मार्ग से आए हो उस पर मत जाना। उसके विपरीत मोक्ष मार्ग है।

ब्र.दीपक भैया संघस्थ आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी (22 दिसम्बर ’24)

आँखों में पड़ेगा जाला, नाकों से बहेगा नाला, लाठी से पड़ेगा पाला, कानों में पड़ेगा ताला।
तब तू क्या करेगा लाला ?

आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी (22 दिसम्बर ’24)

यदि दु:ख में भगवान याद आते हैं तो इसमें अचरज क्या !
चकोर को भी चंद्रमा अंधेरी रात में ही अच्छा लगता है।

स्वाध्याय सान्निध्य आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी
(षटशती-श्र्लोक-88; आचार्य श्री विद्यासागर जी)

ध्यानस्थ…
भौंरे को फूल पर गुनगुनाते समय पराग का स्वाद नहीं आता। जब स्वाद लेता है तब गुनगुनाता नहीं।

ब्र. प्रदीप पियूष

हम भी गृहस्थी में भिनभिनाते हैं, धर्म में आकर गुनगुनाते हैं फिर ध्यानस्थ हो आत्मा का रसपान कर सकते हैं।

चिंतन

काँटा लग‌ना पूर्व के कर्मों से (तथा वर्तमान की लापरवाही से)।
लेकिन रोना/ न रोना पुरुषार्थ का विषय।

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

हर केंद्र की परिधि होती है।
और हमारी ?
परिधि वृत्ताकार होती है, किन्तु हम डर कर या रागवश एक दिशा के क्षेत्र को सिकोड़ लेते हैं और द्वेषादि के क्षेत्र को बढ़ा लेते हैं।
वस्तुओं के साथ ऐसा नहीं है; पुराना मोरपंख किताब में वहीं मिलता है, जहाँ वह रखा गया था।

ब्र. डॉ. नीलेश भैया

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