रति → झुकाव,
राग→ लगाव,
मोह → जुड़ाव।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
अपनी किस्मत तो हर व्यक्ति खुद लिखता है पर लिखते समय मदहोश रहता है सो भूल जाता है कि क्या लिखा था। इसलिये ज्योतिषियों से पढ़वाने चला जाता है। वह भूल जाता है कि ज्योतिषी भूलों को सुधार नहीं सकता, यह पावर तो लिखने वाले के हाथ में ही है।
स्वाभिमान… स्व-अपेक्षित,
अभिमान…. पर-अपेक्षित।
मुनि श्री सुधासागर जी
(निरभिमान… न स्व-अपेक्षित, ना पर अपेक्षित)
पटना के एक सप्ताह के प्रोग्राम से लौटने पर एक स्वाध्यायी ने कहा → यहाँ तो सूना कर गये (स्वाध्याय बंद हो गया था)।
जबाब → भगवान के जाने के बाद सूना हुआ था क्या ?
क्यों नहीं हुआ था ?
उनका प्रतिबिंब बना कर उनकी कमी की पूर्ति करते हैं।
आपने मेरी जगह दूसरों से स्वाध्याय क्यों नहीं किया ?
चिंतन
इंद्रधनुष चाहने वाले को, वर्षा सहन करनी होगी।
(सलौनी- सहारनपुर)
धर्म-भीरू कहना सही नहीं है, धर्म से डरा नहीं जाता।
संसार-भीरू धर्म करते हैं, यह सही है।
मुनि श्री सुधासागर जी
एक चींटी बचाने का पुण्य सोने के पहाड़ को दान देने से भी ज्यादा होता है।
आर्यिका श्री विज्ञानमती माता जी
कर्म और धर्म कभी विपरीत नहीं होते।
जैसे किये जाते हैं वैसे ही फलित होते हैं।
मुनि श्री अजितसागर जी
(इनके एक से स्वभाव हैं, इसलिये कर्म धर्ममय होने चाहिये)
चिंतन
आँखें आँखों से ना मिलें, तो भीतरी आँखें खुलती हैं।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
“दया”का उल्टा “याद”
किसकी याद ?
स्वयं की।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
दया शुरु करनी चाहिये स्वयं/ अपने घर से।
मुनि श्री अजितसागर जी
आग पर तरल पदार्थ डालने से आग बुझ जाती है।
पर इच्छा ऐसी आग है उसमें घी जैसा बहुमूल्य तरल भी (इच्छापूर्ति के लिये) डाला जाय तो इच्छा रूपी अग्नि और-और भड़कती है।
चिंतन
यदि आप बार-बार भूतकाल में जाते हैं तो आप वर्तमान से ही तो चुरा रहे हो/ वर्तमान बचेगा ही नहीं।
कानन विहारी
घर साफ़ रखने के लिये पहले गंदगी लाने वाली खिड़कियाँ बंद, तब झाड़ू।
बाधक कारणों को पहले रोकें फिर साध्य पर ध्यान।
निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
जिसको पाषाण में भगवान के दर्शन होते हैं, एक दिन उसे साक्षात् भगवान के दर्शन हो जाते हैं।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
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