यदि कोई एक बार हमारा अनादर कर देता है, तो उस अनादर को हम सौ बार दोहराते हैं।
यदि वह दंड का अधिकारी है, तो हम सौ गुने अपराधी हुए!
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
जिससे मोह किया, वह आपको छोड़ेगा।
मोह छोड़ा, तो आप उन्हें छोड़ेंगे।
मुनि श्री मंगलसागर जी
जो चीज़ों को नज़रअदाज़ करे/ करने का प्रयास करे, वही ज्ञानी।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
साधु और गृहस्थ दोनों संसार में, पर संसार में साधु तथा गृहस्थ में संसार।
गृहस्थ संसार का स्वाद जानता (उसमें आनंद लेता) है, साधु संसार का स्वरूप जानता है, उसके लिये संसार में रहना जरूरी है।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
शेर की मांद के बाहर जानवरों के आने के ही पदचिह्न दिखते हैं, लौटने के नहीं।
संसार में एक बार घुसने पर विरले ही निकल पाते हैं।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
सबका सम्मान करना संस्कार है,
अपने अधिकारों की रक्षा स्वाभिमान।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
गांधीनगर अक्षरधाम में पहली मूर्ति एक व्यक्ति की, अधबनी मूर्ति में पत्थर में से छेनी/हथौड़े से अपने आप की सुंदर सी मूर्ति बना रहा है।
हम सब भी तो अपने-अपने बाहर को ही तो तराश रहे हैं, अंदर में कभी छेनी लगायी ?
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
चोरी* करने की अनुकूलता/ कर पाना/ सफलता मिलना पुण्योदय से।
चोरी करने में पाप-बंध।
फल ?
पापोदय जैसे असाध्य रोग/ दुर्गति/ गरीबी आदि।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
* ऐसे ही अन्य पाप क्रियाओं में लगाना।
दुश्मन को कभी कमज़ोर मत समझना।
सामने आ जाये तो अपने को कमज़ोर मत समझना।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
नई सेविका के हाथ बेटे के लिये टिफिन भेजा।
पहचानूंगी कैसे ?
जो सबसे सुंदर हो।
सेविका अपने बेटे को टिफिन दे आयी।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
मैं आत्मा हूँ
औरों से आत्मीयता
मेरी श्वास है।
(जब तक संसार में हूँ)।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
तुलसी कृत रामायण में राम को विनम्र कहा, लक्ष्मण को नम्र।
नम्रता दूसरों से/ बाहर की स्थिति से संचालित होती है। विनम्रता स्वयं भीतर से तैयार होती है।
उत्साह के लिये आवेग भी जरूरी है पर उसमें सौम्यता बनी रहे, उग्रता न उतरे।
पं.विजय शंकर मेहता (अंजली)
मोबाइल की बैटरी 8% रह गयी। चार्जिंग पर लगाया फिर भी चार्जिंग घटती जा रही थी। 1% पर पहुंचकर बढ़ना शुरू हुई।
स्टॉक के पुण्य जब कम हो जाते हैं तब पुण्य की क्रियायें/ पुरुषार्थ काम करते हुए नहीं नजर आते हैं।
हाँ ! पुरुषार्थ लगातार सही दिशा में करते रहने से स्थिति सुधरने लगती है।
चिंतन
डर एक में नहीं, अनेक से होता है।
विडंबना, हम एक से अनेक होने के लिए भारी पुरुषार्थ करते रहते हैं।
आर्यिका पूर्णमति माता जी (4 अक्टूबर)
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