लघु को गुरु बनाना*, गुरुकुल परम्परा है।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
(* गुरु के कुल में शामिल कर लेना)
एक विधवा महिला मंदिर में फूल तथा Waste सब भगवान को समर्पित करतीं थीं।
कारण ?
“सर्वस्व समर्पयामि”।
जब हमारा भगवान एक ही है तो अच्छा बुरा सब उसी को अर्पित करेंगे न !
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
नकारात्मक ….काफ़ी अकेला हूँ।
सकारात्मक …अकेला काफ़ी हूँ।
(एकता-पुणे)
भारतीय संस्कृति मानवतावादी,
पाश्चात्य मानववादी (मानव के लिये कितने भी जीवों का संहार करना पड़े तो करो)।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
श्रमण … मैं ही मैं हूँ (क्योंकि स्व में प्रतिष्ठित),
श्रावक …तू ही तू है* ( क्योंकि गुरु/ भगवान की भक्ति की प्रधानता)।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
* दुर्भाग्य(बहुमत), धन दौलत तथा प्रियजनों को ही “तू ही तू है” मानता/ कहता रहता है।
पशु न बोलने से दुःख उठाते हैं,
मनुष्य बोलने से।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
व्रत निधि है, विरति निषेध*।
आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी (19 अगस्त 2024)
* पापों को ना कहना/ नहीं करना।
दर्शन की पैदाइश* से दुःख।
दर्शन-शुद्धि सो जीवन शुद्धि।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
* देखने के भाव
एक राजा ने चित्रकारों की एक प्रतियोगिता कराई।
इसमें किसी ने खेत दिखाया, इतना सजीव कि गाय भ्रमित हो गई।
किसी ने फूल दिखाये तो तितलियाँ/भँवरे भ्रमित हो गये।
पर्दा हटाते ही ये सब होता था।
एक चित्रकार ने राजा को बोला कि वो खुद पर्दा हटायें, राजा हटाने लगा तो पता लगा कि वो पर्दा नहीं पेंटिंग थी, यानी राजा खुद भ्रमित हो गया।
ये पर्दा है काहे का ?
मोह का पर्दा, जो हम सबको खुद हटाना होगा,
और हम सारे के सारे भ्रमित हुए पड़े हैं।
आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी (17 अगस्त 2024)
गृहस्थ चावल जैसा है, पूजा की सामग्री में पुजारी, घर में खिचड़ी, गरीब को दान करते समय साहूकार/ माँ रूप।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
कैसे तय करें कि हम उन्नति कर रहे हैं या अवनति ?
दूसरों से अपने बारे में Opinion लें। Negative Remarks आने पर उस व्यक्ति से यदि नाराज़ हो रहे हों तो अवनति, अपने से नाराज़ हो रहे हों तो उन्नति के पथ पर।
चिंतन
कमजोर ही अपने से कमजोर पर क्रोध करता/ कर सकता है।
क्रोध करने वाले को शक्तिशाली नहीं कहा जा सकता है।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
यदि बड़े होकर संस्कारित नहीं रहे तो बदनाम कौन होगा ?
हमारी माँ।
बलि के पक्ष में कुतर्क… उस जानवर को तो मरना ही था। यहाँ मेरे हाथों मर गया !
मारने में तुम क्यों निमित्त बनो ?
अपने को निष्ठुर/ कठोर क्यों बनाओ ??
डॉ. ब्र. नीलेश भैया
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