देखते-देखते ही वर्ष का आरी महीना दिसंबर आ गया। ऐसे ही देखते-देखते अपने जीवन का अंतिम क्षण आ जाएगा।
जैसे साल भर का लेखा-जोखा आखिरी महीने में देखते हैं ऐसे ही जीवन का लेखा-जोखा(पाप/पुण्य, शुभ/अशुभ कर्म) तैयार किया क्या ?
चिंतन
माँ अपने नालायक बच्चे को ताने मारती है… देख ! पड़ोसी का बच्चा कितना लायक है।
पर जब कुछ देने की बात आती है तो सब कुछ अपने नालायक बच्चे के लिए, लायक पड़ोसी के बच्चे को कुछ भी नहीं।
यह मोह भाव आता कहाँ से है, जो अनंतों को दुखी कर चुका है?
अपने दुर्विचारों से।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी(25 नवम्बर)
Antique चीज़ें बहुमूल्य होती हैं।
हमारे शास्त्र तो हजारों वर्ष पुराने हैं। इनका मूल्य तो आँका ही नहीं जा सकता।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी (22 नवंबर)
दो प्रकार के लोग
- बंधनीय –> जो बंध को पा रहे हैं जैसे कैदी, बलात सीमा में रखते हैं ताकि अमर्यादित न होने पायें।
- वंदनीय –> वेद* से संबंधित। जो सब आत्माओं में भगवान-आत्मा को देखते हैं।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
* ज्ञान।
इंसान हमेशा तकलीफ में ही सीखता है।
खुशी में तो पुराने सबक भी भूल जाता है।
(रेनू जैन – नया बजार, ग्वालियर)
मनोरंजन में दोष नहीं।
मनोबंधन दोषपूर्ण है। मन बंधना नहीं चाहिये। आदत/ लत न पड़ जाये।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
चारित्र पर किताब बनाना और चारित्र को किताब बनाना – दो अलग बातें हैं।
साधु दूसरी पर काम करता है और श्रावक पहली पर।
मुनि श्री मंगलानंद सागर जी महाराज
बाह्य नियंत्रण (काय, वचन) होने पर ही अंतरंग (मन) नियंत्रित हो सकता है।
यदि माता-पिता घूमने के शौकीन हों तो बच्चा घर में कैसे रह सकता है ?
मुनि श्री मंगलसागर जी
इसी से जान गया मैं कि बख़्त ढलने लगे।
मैं थक के छाँव में बैठा तो पेड़ चलने लगे।
फ़रहत अब्बास शाह
अपने हाथों की लकीरें न बदल पाये कभी, खुशनसीबों से बहुत हाथ मिलाये हमने।
ये कयाम कैसा है राह में
तेरे ज़ौक़-ए-इश्क़ को क्या हुआ;
अभी चार कांटे चुभे नहीं
कि तेरे सब इरादे बदल गए।।
ज़ौक़-ए-इश्क़ : लगाव की ख़ुशी (ब्र. डॉ. नीलेश भैया)
पाँचों इंद्रियों के विषय अलग-अलग हैं। आपस में कोई संबंध नहीं।
आत्मा सबको बराबर महत्त्व देती है। इन्हीं से वह संसार के सारे ज्ञान प्राप्त करती है। इसे कहते हैं अनेकांत।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
सन्यासी पृथ्वी का नमक है – बाइबिल,
(मात्रा में कम, महत्व बहुत)।
सत्संग ही स्वर्गवास है।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
आजकल हर व्यक्ति में डेढ़ अक्ल है।
एक खुद की, आधी पूरी दुनिया की अक्ल का जोड़।
ब्र. भूरामल जी
(आचार्य श्री विद्यासागर जी के गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर जी का पूर्व नाम)
वस्तु तो “पर” है ही, तेरे भाव भी “पर” हैं क्योंकि वे कर्माधीन हैं।
फिर मेरा क्या है ?
सहज-स्वभाव* ही तेरा है।…. (समयसार जी)
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी(23 अक्टूबर)
* राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ से रहित।
हाथ की चार उंगलियां अविरति आदि तथा अंगूठा मिथ्यात्व के कारण।
चारों उंगलियां मिथ्यात्व की सहायक हैं। जब मुट्ठी बँधती* है तब मिथ्यात्व(अंगूठे) को अविरति आदि (उंगलियां) दबा लेतीं हैं।(उसका प्रभाव समाप्त/ दब जाता है)
चिंतन
* प्रण लिया जाता है।
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