Category: वचनामृत – मुनि श्री क्षमासागर

उत्तम संयम

अपने मन-वचन और इन्द्रियों को संयमित कर लेना, नियमित कर लेना, नियन्त्रित कर लेना, इसी का नाम संयम है। यदि हमने अपने जीवन में सत्य-ज्योति

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उत्तम सत्य

जिसका मन जितना सच्चा होगा उसका जीवन भी उतना ही सच्चा होगा। जीवन उन्हीं का सच बनता है जो कषायों से मुक्त हो जाते हैं।

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उत्तम शौच (लोभ न करना)

अपन आनन्द लें उस चीज़ का जो अपने को प्राप्त है। जो अपने पास है वह नहीं दिखता, जो दूसरों के पास है हमें वह

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उत्तम मार्दव (मान नहीं करना)

दूसरों के गुणों में अगर हम आह्लाद महसूस करते हैं तो मानियेगा हमारे भीतर मृदुता-कोमलता आनी शुरू हो गयी है। तृप्ति मान-सम्मान से भी नहीं

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उत्तम क्षमा

जो जितना सामर्थ्यवान होगा वह उतना क्षमावान भी होगा। जो जितना क्रोध करेगा वह उतना ही कमजोर होगा। कागज़ की किश्ती कुछ देर लहरों से

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द्रढ़ता

एक ग़रीब बुढ़िया मंदिर बनवाना चाहती थीं। पैसे कितने हैं ? 2 रुपये । इसमें मंदिर कैसे बनेगा ? 2 रुपयों के साथ 2 चीज़ें

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वैराग्य

दु:ख से ऊबकर लिया गया वैराग्य टिकता नहीं। (क्योंकि पुण्य आकर्षित करता रहता है-गुरुवर मुनि श्री क्षमासागर जी) टिकाऊ वैराग्य लेना है/प्रगति करनी है तो

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समर्पण

समर्पण यानि अपने को आराध्य के लिये मिटा देना। मिटाना यानि अपने मन को आराध्य के अनुसार चलाना। गुरुवर मुनि श्री क्षमासागर जी

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मंगल आशीष

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