Category: अगला-कदम

तीर्थंकर प्रकृति बंध

तीर्थंकर प्रकृति बंध 8वें गुणस्थान के ऊपर इसलिये नहीं क्योंकि आगे कषाय/संक्लेष बहुत मंद हो जाते हैं। मुनि श्री सुधासागर जी

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निद्यत्ति / निकाचित

अपूर्वकरण में निद्यत्ति/निकाचित पने की व्युच्छित्ति….सिद्धांत है। देवदर्शन से व्युच्छित्ति….भक्ति की अपेक्षा। मुनि श्री सुधासागर जी

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संसार और संयम

“संसार” में – छोटे “स” से बड़ा “सा” बन जाता है यानि संसार बढ़ता ही जाता है। संयम यानि सं+यम – “स” से संयम/ सावधानी,

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क्षायिक भाव/चारित्र

8-10 गुणस्थान में कषाय/ मोह का क्षय तो हुआ नहीं क्षायिक भाव/चारित्र कैसे कह दिया ? क्षपक-श्रेणी वाला क्षय करेगा ही/ उसी के लिये क्षपक

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संगति

अगर कोई मक्खी सब्जी तौलते समय तराजू पर बैठ जाए तो उसकी कीमत दस पैसे, लेकिन वही मक्खी अगर सोना तौलती तराजू पर बैठ जाए

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जीव / पुद्गल

4 द्रव्य तो उदासीन हैं, जीव और पुद्गल में युद्ध चलता रहता है। चूंकि संसार काजल कोठरी है सो कालिख लगती ही है और कालिख

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अवस्था

युवावस्था में जो मांसपेशियाँ शक्त्ति देती हैं, वही वृद्धावस्था में बोझ बन जाती हैं/शक्त्ति क्षीण करती हैं। चिंतन

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लब्धि-अपर्याप्तक

लब्धि-अपर्याप्तक सिर्फ आर्यखंड में होते हैं, मलेच्छखंड, भोग भूमि, कुभोग भूमि, स्वर्ग तथा नरक में नहीं। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

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कल्याण

अपने कल्याण करने का सरल तरीका….दूसरों को अपना मानने से भी अपने कल्याण की शुरुवात होती है।

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क्षयोपशम सम्यग्दर्शन

क्षयोपशम सम्यग्दर्शन में दोष…. 1. चल दोष….चलायमान/ जल में प्रतिबिम्ब साफ नहीं दिखता जैसे ये प्रतिमा मैंने बनवायी। 2. मलिन….आकांक्षा/ मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा। 3. अगाढ़….

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मंगल आशीष

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