Category: अगला-कदम

आध्यात्म ग्रंथ

द्रव्यानुयोग के 3 भाग – 1. न्याय 2. आध्यात्म 3. जीव के वर्णन वाले ग्रंथ आध्यात्म, द्रव्यानुयोग में आयेगा; परन्तु सारे द्रव्यानुयोग के ग्रंथ आध्यात्म

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रत्नत्रय / शुद्धोपयोग

रत्नत्रय तथा शुद्धोपयोग आत्मा के स्वभाव नहीं, विभाव हैं क्योंकि ये भी छूट जाते हैं । मुनि श्री सुधासागर जी

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नय

व्यवहार नय – पिता पुत्र की अपेक्षा, “पर” सापेक्ष, भेद रूप, दर्जी द्वारा कपड़े के टुकड़े करना, निश्चय तक पहुँचाता है । निश्चय नय –

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अवगाहनत्व

धर्म/अधर्म/काल में अवगाहनत्व शक्ति नहीं होती । आकाश में तो पूर्णता और सब द्रव्यों के लिये होती है पर जीव/पुदगल में भी ये शक्ति होती

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विग्रह/ऋजु गति

विग्रह गति में जीव छहों दिशाओं में जा सकता है, जबकि ऋजु गति में सिद्ध भगवान, ऊर्ध्व दिशा में ही जाते हैं । निधि-मुम्बई

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विसंयोजना

अनंतानुबंधी की विसंयोजना चारौं गतियों में होती है । कषायपाहुड़ – II पेज 220 & 232 स्व. पं श्री रतनलाल बैनाड़ा जी

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आचार

दर्शन, ज्ञान, चारित्राचार के बाद तपाचार (निर्जरा में तेजी के अलावा) पहले तीनों को अभेद रूप करने के लिये आवश्यक है, जैसे हलुए का स्वाद/सुगंधि

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भय

मिथ्यादृष्टि संसार में भयभीत रहता है, सम्यग्दृष्टि संसार से । मुनि श्री संस्कारसागर जी

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अज्ञान-भाव

अज्ञान-भाव : 1. औदायिक हैं – मोक्षमार्ग की अपेक्षा । जब ज्ञान की कमी को विषय बनाते हैं । 2. क्षयोपशमिक हैं – ज्ञानावरण की

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स्व व परमात्म चिंतन

आचार्यों ने स्व-चिंतन को उत्तम, देह को मध्यम, विषयों को अधम और पर-चिंतन को अधमाअधम कहा है । परमात्मा भी तो “पर” है, उसका चिंतन

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मंगल आशीष

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