Category: अगला-कदम
उपयोग
शुद्धोपयोग भी केवलज्ञान की अपेक्षा से अशुद्धोपयोग है । आचार्य श्री विद्यासागर जी
तीर्थंकर प्रकृति
भगवान की तीर्थंकर प्रकृति के उदय का अनुभाग तथा उदीरणा कम होने लगती है तब भगवान समवसरण छोड़ देते हैं। निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
परिणमन
स्कंध संख्यात/ असंख्यात/ अनन्त गुण वाले भी। ज्यादा गुण वाला कम गुण वाले को अपने रूप परिणमन करा लेता है। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (जीवकाण्ड
वेग/ उद्वेग/ निर्वेग
यदि भेद विज्ञान से कर्म/ नोकर्म/ आत्मा के स्वभाव की ओर देखें तो शरीर के प्रति आसत्ति का वेग कम होगा, उसे ही “निर्वेग” कहते
पुदगल / जीव
पुदगल एक प्रदेश से प्रारम्भ होकर संख्यात, असंख्यात, अनंत प्रदेशी तक। पर जीव में एक ही विकल्प… लोक का असंख्यातवाँ भाग (अवगाहना की अपेक्षा), समुद्धात
सासादन सम्यग्दर्शन में भाव
सासादन गुणस्थान उपशम सम्यग्दर्शन से गिरते समय होता है। दर्शन-मोहनीय की विवक्षा से न उदय, न उपशम महत्व का है, ना ही क्षयोपशम काम कर
राग / मोह
राग… चारित्र मोहनीय ही। मोह… दर्शन व चारित्र मोहनीय भी। विपरीत दिशा में ले जाता है। निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
क्षयोपशमिक भाव
5 ज्ञानों में से 4 क्षयोपशमिक हैं। क्षयोपशम में 3 क्रियाएँ होती हैं। – 1 कुछ सर्वधाती स्पर्धकों (शक्तियों) को बदल देते हैं यानि उन्हें
अक्षर भेद
लब्ध-अक्षर – अक्षर को समझने की लब्धि/ योग्यता (कर्म के क्षयोपशम से) इसे ही भाव-इंद्रिय कहा (त.सू. – लब्धयोपयोगो भावेन्द्रियम्)। लब्ध-अक्षर क्षेत्र → पर्याय ज्ञान
पुण्य
पुण्य प्रशंसनीय नहीं, लेकिन प्रारम्भिक अवस्था (गृहस्थ) में हर हेय का त्याग नहीं जैसे ज़हर से बनी दवा। हाँ ! पुण्य की इच्छा नहीं करना
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