Category: अगला-कदम
राग / मोह
राग… चारित्र मोहनीय ही। मोह… दर्शन व चारित्र मोहनीय भी। विपरीत दिशा में ले जाता है। निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
क्षयोपशमिक भाव
5 ज्ञानों में से 4 क्षयोपशमिक हैं। क्षयोपशम में 3 क्रियाएँ होती हैं। – 1 कुछ सर्वधाती स्पर्धकों (शक्तियों) को बदल देते हैं यानि उन्हें
अक्षर भेद
लब्ध-अक्षर – अक्षर को समझने की लब्धि/ योग्यता (कर्म के क्षयोपशम से) इसे ही भाव-इंद्रिय कहा (त.सू. – लब्धयोपयोगो भावेन्द्रियम्)। लब्ध-अक्षर क्षेत्र → पर्याय ज्ञान
पुण्य
पुण्य प्रशंसनीय नहीं, लेकिन प्रारम्भिक अवस्था (गृहस्थ) में हर हेय का त्याग नहीं जैसे ज़हर से बनी दवा। हाँ ! पुण्य की इच्छा नहीं करना
प्रत्याख्यान पूर्व
प्रत्याख्यान पूर्व(9वाँ पूर्व) = त्याग (सावद्य का, आगामी समय के लिये)। इसी पूर्व को तीर्थंकर के पादमूल में 8 वर्ष तक पढ़ कर परिहार-विशुद्धि होती
सम्यक्-मिथ्यात्व गुणस्थान
तीसरे गुणस्थान में 3 ज्ञान, 3 अज्ञान मिश्र हो जाते हैं जैसे दालमोंठ में न दाल का स्वाद है, न मोठ का ही। पहले तथा
नरकों में पटल
पहली पृथ्वी (नरक) में 13 पटल। नीचे-नीचे, दो-दो कम होते हुए सातवीं में 1 पटल। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (जीवकाण्ड गाथा – 524)
देवों की उत्पत्ति
मिथ्यादृष्टि देव, पृथ्वी, जल, वनस्पतिकायिक बादर पर्याप्तक में जन्म ले सकते हैं। पर अग्नि, वायुकायिक में नहीं क्योंकि वहाँ के लिये बहुत संक्लेषित भाव होने
उपभोग
मुनियों का उपभोग – प्रवचन, आहार क्रिया, पर रागद्वेष रहित, इसलिए बंध नहीं। श्रावकों का रागद्वेष सहित सो बंध का कारण। श्रावक कम से कम
पंचम काल में भाव
पंचम काल में औदयिक भाव (गति, कषाय, शरीर नाम कर्म आदि) सबसे ज्यादा होते हैं। दूसरे स्थान पर क्षयोपशमिक भाव(ज्ञान, दर्शन)। पारिणामिक तो हमेशा बना
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