Category: अगला-कदम

पुण्य

पुण्य और इसका फल, दोनों हेय नहीं, फल का दुरुपयोग हेय है । मुनि श्री कुंथुसागर जी

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भाव

संख्या कि अपेक्षा – औपशमिक भाव सबसे पहले इसीलिये लिया क्योंकि धर्म की शुरुआत इसी से होती है (4 से 11 गुणस्थान) 2. क्षायिक (4

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भगवान की क्षुधा

परम औदारिक शरीर (13, 14 गुणस्थान) होने के बाद तो भगवान की क्षुधा होगी ही नहीं, क्योंकि उनके शरीर में जीव समाप्त हो जाते हैं।

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क्षयोपशम सम्यग्दर्शन

क्षयोपशम से मिथ्यात्व का क्षय कैसे ? मिथ्यात्व संक्रमण करके सम्यक्-मिथ्यात्व, और सम्यक्-मिथ्यात्व, सम्यक्-प्रकृति में संक्रमित हो जाता है । मुनि श्री सुधासागर जी

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रत्नत्रय से बंध तथा मोक्ष

समयसार – जब जघन्य भाव से परिणमन करता है/राग सहित होता है तब इंद्रादि/ तीर्थंकर आदि का बंध करता है । उत्कृष्ट भाव/राग रहित मोक्ष

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चारित्र

इसकी शुरुआत – 5 गुणस्थान से (चरणानुयोग तथा द्रव्यानुयोग की अपेक्षा ) – जब चारित्र के दो भेद किये (देश/सकल) । तीन भेद (उपशम, क्षायिक,

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प्रवृति में अप्रमत्त

प्रवृति में भी अप्रमत्त अवस्था (7 गुणस्थान) मानना होगा । वरना एक मुहुर्त तक विहार करने वाले मुनि (तीर्थंकर भी) को 6 से नीचे उतरना

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वस्तु अनेक धर्मात्मक

पर्याय अनंत होती हैं, इसीलिये वस्तु को अनेक धर्मात्मक कहा है । अपने स्वभाव के अनुसार सत्, पर की अपेक्षा असत् है । एक ज्ञान

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सातवाँ गुणस्थान

कहते हैं – मुनि आहार करते हुए भी आहार नहीं करते, सो कैसे ? सातवें गुणस्थान में स्थित मुनिराज आहार करेंगे या अपनी और दूसरे

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मंगल आशीष

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