Category: अगला-कदम
सम्मूर्च्छन
सम्मूर्च्छन मनुष्य लब्धि-अपर्याप्तक ही होता है । पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
ज्ञानी
ज्ञानी पुण्य और पाप दौनों के उदय को पुद्गल की पर्याय मानता है , इसलिये दौनों परिस्थितियों में समता भाव रखता है । रत्नत्रय – 115
दर्शन
अपर्याप्तक अवस्था तथा विग्रहगति में भी चक्षु या/और अचक्षु या/और अवधि दर्शन होता है । क्योंकि हर जीव के ज्ञान हर समय और हर अवस्था
कर्मों की जघन्य स्थिति
अभव्य जीवों के भी कर्मों की जघन्य स्थिति, अंत: कोड़ा कोड़ी सागर की भी हो सकती है । पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
तीर्थंकर-प्रकृति
भगवान जब तक तेरहवें गुणस्थान में नहीं जाते तब तक तीर्थंकर-प्रकृति उदय में आती है या नहीं ? आती तो है पर नाम-कर्म में बदल
पुदगल के गुण
परमाणु में चार गुण होते हैं, एक प्रदेशी होने से यह अशब्द है । स्कंधावस्था में पाँचों गुण (रस, रूप, गंध स्पर्श, शब्द) होते हैं ।
बादर/सूक्ष्म
बादर लब्धिपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना से सूक्ष्म निगोद निवृत्तिपर्याप्तक असंख्यात गुणा बड़ा होता है । पं. रतनलाल बैनाड़ा जी
गुप्ति/सामायिक
गुप्ति निवृतिरूप है । सामायिक मानसिक प्रवृति होती है । त.सू.टीका – पं. कैलाशचंद्र शास्त्री जी
बाईस परीषह किस चारित्र में ?
सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि में सभी परिषह होते हैं । त.सू.टीका – पं. कैलाशचंद्र शास्त्री जी
दसवें से बारहवें गुणस्थान में परीषह
दसवें से बारहवें गुणस्थान में चौदह परीषह संभव हैं । दसवें गुणस्थान में मोहनीय समाप्त तो नहीं हुई पर मात्र सत्ता में है, इसलिये इसमें
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