प्रभु खोजने* से नहीं मिलते हैं।
उनमें खो-जाने** से मिलते हैं।
(डॉ. सविता उपाध्याय)
* ज्ञान।
** श्रद्धा/ भक्ति।
आत्मा को समझाने की आवश्यकता नहीं, वह तो ही खुद समझदार है, आत्मा को समझना है।
ऐसे ही भगवान/ गुरु को समझना है।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
प्रश्न यह नहीं कि शक्ति कितनी है, सामग्री या संपत्ति कितनी है! प्रश्न है कि व्यक्ति कैसा है? यह तीनों साधन तो अधम को भी मिल जाते हैं। ये तो अवनति के कारण हैं; विरले ही इनके माध्यम से प्रगति करते हैं।
पिछले जन्म से रत्न की गाड़ी लेकर आए थे, क्या कचरा भर के वापस जाना चाहते हैं?
प्रश्न यह नहीं कि सीढ़ी है या नहीं; प्रश्न है कि सीढ़ी कहाँ लगी है! कुएं के पास, नीचे जाने के लिए या छत के पास, ऊपर चढ़ने के लिए?
व्यक्ति नहीं, अभिव्यक्ति महत्वपूर्ण है; अभिप्राय महत्वपूर्ण है। मधुर व्यवहार लोकप्रिय बनने के लिये / प्रसिद्धि पाने के लिए अपनाया है अथवा आत्मस्वभाव के निकट आने के लिए?
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी (22 अक्टूबर)
रसना को नागिन क्यों कहा ?
इसी के चक्कर में आकर Overeating करके पेट/ सेहत में ज़हर घोलते हैं।
इसी से ज़हरीले वचन निकलते हैं और बोलकर मुँह रूपी बिल में नागिन की तरह छुप जाती है।
चिंतन
आँसू चाहे खुशी के हों या दु:ख के, दृष्टि को तो धूमिल करते ही हैं।
इसीलिए वीतरागता का इतना महत्व है।
चिंतन
सुखी रहने के उपाय –> दुखों को स्वीकारें; सुखों का प्रतिकार करें।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
मन की आज्ञा मानना नहीं,
नहीं तो नौकर कहलाओगे।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
यदि कोई एक बार हमारा अनादर कर देता है, तो उस अनादर को हम सौ बार दोहराते हैं।
यदि वह दंड का अधिकारी है, तो हम सौ गुने अपराधी हुए!
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
जिससे मोह किया, वह आपको छोड़ेगा।
मोह छोड़ा, तो आप उन्हें छोड़ेंगे।
मुनि श्री मंगलसागर जी
जो चीज़ों को नज़रअदाज़ करे/ करने का प्रयास करे, वही ज्ञानी।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
साधु और गृहस्थ दोनों संसार में, पर संसार में साधु तथा गृहस्थ में संसार।
गृहस्थ संसार का स्वाद जानता (उसमें आनंद लेता) है, साधु संसार का स्वरूप जानता है, उसके लिये संसार में रहना जरूरी है।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
शेर की मांद के बाहर जानवरों के आने के ही पदचिह्न दिखते हैं, लौटने के नहीं।
संसार में एक बार घुसने पर विरले ही निकल पाते हैं।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
सबका सम्मान करना संस्कार है,
अपने अधिकारों की रक्षा स्वाभिमान।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
गांधीनगर अक्षरधाम में पहली मूर्ति एक व्यक्ति की, अधबनी मूर्ति में पत्थर में से छेनी/हथौड़े से अपने आप की सुंदर सी मूर्ति बना रहा है।
हम सब भी तो अपने-अपने बाहर को ही तो तराश रहे हैं, अंदर में कभी छेनी लगायी ?
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
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