मनोरंजन में दोष नहीं।
मनोबंधन दोषपूर्ण है। मन बंधना नहीं चाहिये। आदत/ लत न पड़ जाये।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
चारित्र पर किताब बनाना और चारित्र को किताब बनाना – दो अलग बातें हैं।
साधु दूसरी पर काम करता है और श्रावक पहली पर।
मुनि श्री मंगलानंद सागर जी महाराज
बाह्य नियंत्रण (काय, वचन) होने पर ही अंतरंग (मन) नियंत्रित हो सकता है।
यदि माता-पिता घूमने के शौकीन हों तो बच्चा घर में कैसे रह सकता है ?
मुनि श्री मंगलसागर जी
इसी से जान गया मैं कि बख़्त ढलने लगे।
मैं थक के छाँव में बैठा तो पेड़ चलने लगे।
फ़रहत अब्बास शाह
अपने हाथों की लकीरें न बदल पाये कभी, खुशनसीबों से बहुत हाथ मिलाये हमने।
ये कयाम कैसा है राह में
तेरे ज़ौक़-ए-इश्क़ को क्या हुआ;
अभी चार कांटे चुभे नहीं
कि तेरे सब इरादे बदल गए।।
ज़ौक़-ए-इश्क़ : लगाव की ख़ुशी (ब्र. डॉ. नीलेश भैया)
पाँचों इंद्रियों के विषय अलग-अलग हैं। आपस में कोई संबंध नहीं।
आत्मा सबको बराबर महत्त्व देती है। इन्हीं से वह संसार के सारे ज्ञान प्राप्त करती है। इसे कहते हैं अनेकांत।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
सन्यासी पृथ्वी का नमक है – बाइबिल,
(मात्रा में कम, महत्व बहुत)।
सत्संग ही स्वर्गवास है।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
आजकल हर व्यक्ति में डेढ़ अक्ल है।
एक खुद की, आधी पूरी दुनिया की अक्ल का जोड़।
ब्र. भूरामल जी
(आचार्य श्री विद्यासागर जी के गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर जी का पूर्व नाम)
वस्तु तो “पर” है ही, तेरे भाव भी “पर” हैं क्योंकि वे कर्माधीन हैं।
फिर मेरा क्या है ?
सहज-स्वभाव* ही तेरा है।…. (समयसार जी)
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी(23 अक्टूबर)
* राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ से रहित।
हाथ की चार उंगलियां अविरति आदि तथा अंगूठा मिथ्यात्व के कारण।
चारों उंगलियां मिथ्यात्व की सहायक हैं। जब मुट्ठी बँधती* है तब मिथ्यात्व(अंगूठे) को अविरति आदि (उंगलियां) दबा लेतीं हैं।(उसका प्रभाव समाप्त/ दब जाता है)
चिंतन
* प्रण लिया जाता है
मरण के समय प्राय: कहा जाता है “दिवंगत आत्मा को शांति मिले”।
इसका क्या अर्थ हुआ ? … उनके जीवन में पहले वैभव आदि सब कुछ था पर शांति नहीं थी क्योंकि हमने उनके लिए वैभव आदि नहीं मांगा।
हम क्या कर रहे हैं ?
वही वैभव इकट्ठा करने में अपने जीवन की शांति नष्ट कर रहे हैं। हमारे जाने के बाद भी यही कहा जाएगा… “दिवंगत आत्मा को शांति मिले”!
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी(16 अक्टूबर)
दान…..जो श्रद्धा के साथ आंशिक रूप से दिया जाता है।
त्याग… तेरा तुझको अर्पण यानी कर्म का कर्म को* कर्म से मुक्ति** पाने के लिए।
भिक्षा… प्राय: अनादर के साथ जो दिया जाए।
भेंट… के साथ में स्वार्थ सिद्धि जुड़ी रहती है। गिफ्ट लिफ्ट लेने के लिए दी जाती है।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
* जो कुछ भी हमारे पास त्याग करने योग्य है, वह पुण्य रूपी कर्म का दिया हुआ ही तो है। उसको वापस करने का मतलब… पुण्य को और बढ़ाना। तो पुण्य कर्म ने दिया हमने कर्म को बढ़ा कर वापस किया।
** पाप कर्मों से मुक्ति, पुण्य कर्म तो बाद में अपने आप झर जाते हैं।
कांटों का भी अपना महत्त्व होता है।
यदि वे न होते तो हम कितने कीड़े मकोड़ों को कुचलते चले जाते तथा फूल भी सुरक्षित न रह पाते।
हमारे निंदक भी तो हमारे लिए कांटे के रूप हैं। अगर वे न होते तो कितने कर्म कटने से रह जाते, हम अपनी आत्मा को कुचलते हुए चले गए होते और हमारे गुण सुरक्षित/ विकसित ना हो पाते।
चिंतन
दुनिया उसको कहते भैया जो माटी का खिलौना* है,
मिल जाए तो माटी** भैया, ना मिले तो सोना*** है।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी(29 अक्टूबर)
* मात्र खेलने के लिए, यथार्थ में कोई कीमत नहीं।
** प्राप्त की कोई कीमत नहीं।
*** अप्राप्त बहुत कीमती और आकर्षक लगता है।
वैराग्य से संसार छूटता है।
तत्वज्ञान* से मोक्षमार्ग पर बने रहते हैं।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
* धर्म का ज्ञान।
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