कर्म के उदय को स्वीकार करना ही अध्यात्मविद्या है।
आचार्य श्री विद्यासागर जी (मुनि श्री अक्षयसागर जी)
धर्म 2 प्रकार का –
व्यक्ति सापेक्ष → सब अपने-अपने भावों को परिष्कृत करते हैं।
वस्तु सापेक्ष → वस्तु का स्वभाव ही धर्म है।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
एक समृद्ध गुरुकुल खुला। जो भी पढ़ने आता उससे एक ही प्रश्न किया जाता – “तुम कौन हो ?”
बच्चे नाम बताते।
योग्य नहीं हो।
कुछ जबाब बदल देते –> मैं आत्मा हूँ।
तुम तो और अधिक गलत हो, पहले वाले अनुभव पर तो आधारित थे।
सालों बाद एक ने जबाब दिया –> “यही जानने तो यहाँ आया हूँ ।”
सालों तक गुरुकुल में यही एक विद्यार्थी रहा।
ब्र. (डॉ.) नीलेश भैया
दो प्रकार की अनुकम्पा –>
- सामान्यजन के प्रति अनुकम्पा।
- साधुजन के प्रति अनुकम्पा।
इसमें विशेष पुण्य/ लाभ मिलेगा। Feeling विशेष होगी क्योंकि Object Higher Quality का होता है। इसमें सावधानी कि घटना ही न घटे जबकि सामान्यजन पर अनुकम्पा, घटना घटित होने के बाद में की जाती है।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (तत्त्वार्थ सूत्र – 6/12)
मोह ऐसा है जैसे मरुस्थल में सावन तो आया (दिखता/ लगता) पर पतझड़ न गया (आत्मा से मोह)।
इनके पेड़ों पर सुख/ शांति के फल कैसे लग सकते हैं!
मुनि श्री मंगलानंद सागर जी
बिना प्रमाद,
श्वसन क्रिया सम,
पथ में चलो।
आचार्य श्री विद्यासागर सागर जी
सबसे कम शब्दों/ समय में सुख की परिभाषा बता दें।
गुरु मौन हो गये। थोड़ी देर बैठ कर जिज्ञासु चला गया।
अगले दिन आभार प्रकट करने आया।
आज परिभाषा समझ कर (कि हड़बड़ी में सुख नहीं मिलेगा/ इंद्रियाँ शांत हों तब सुख मिलेगा) अनुभूति करने आया हूँ।
इंद्रिय सुख से बड़ा आत्मिक सुख होता है।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
साधु की Dress एक, Address अनेक।
गृहस्थ की Dress अनेक, Address एक।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
कच्चा घड़ा है,
काम में मत लेना,
बिना परीक्षा।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
“परिहार” के दो अर्थ होते हैं एक ग्रहण करना, दूसरा छोड़ना।
ग्रहण कर्तव्य का, छोड़ना अकर्तव्य का;
और इन दोनों के होने से बनता है चरित्र।
आचार्य श्री विद्यासागर जी (स्वाध्याय श्री भगवती आराधना- भाग 1, पृष्ठ 92,93)
सान्निध्य आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
मैंने देखी, मैं की माया।
मैं को खोकर, मैं ही पाया।।
(रेनू – नयाबाजार मंदिर)
चार प्रकार के लोग….
1) भाग्यवान… जिनके पास वर्तमान में धन वैभव हो।
2) सौभाग्यशाली… वैभव के साथ स्वास्थ्य भी अच्छा हो।
3) महा-सौभाग्यशाली… धन, स्वास्थ्य और धर्म के परिणाम हों।
4) दुर्भाग्यपूर्ण… तीनों में से कुछ भी ना हो।
आर्यिका श्री शुभ्रमति माता जी संघस्थ आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
पूर्णतावादी का कोई कार्य कभी पूरा नहीं होता है। क्योंकि उसकी निगाह में कोई भी कार्य सर्वगुण सम्पन्न नहीं होता है। इसलिये जोखिम उठाने के बजाय वह उसे टालता रहता है।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
घर से पर-घर जाने के लिए अच्छे कपड़े पहनते हैं। गाँव से पर-गाँव जाने के लिए तैयारी और ज्यादा, धन आदि रखना होता है। देश से विदेश जाने के लिए उनकी करेंसी (राइट हैंड ड्राइविंग) आदि।
लोक से परलोक जाने के लिए क्या तैयारी कर रहे हैं ?
वहाँ तो धन दौलत, कीर्ति भी साथ नहीं जाती, घर वालों को साथ चलने को बोलोगे तो वे नाराज़ हो जायेंगे/ दुश्मन बन जायेंगे। साथ में कुछ जाएगा तो वह होगा अपना कर्म। वे कर्म शुभ हैं या अशुभ यह चॉइस हमारे हाथ में है।शुभ/ अशुभ का निर्णय होगा कि आपने इंद्रियों तथा मन का सदुपयोग किया है या दुरुपयोग !
प्रवचन आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी (26 जनवरी)
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