विधि, विधि और विधि से सफलता मिलती है यानी भाग्य, तरीका और पुरुषार्थ से।

मुनि श्री मंगलानंदसागर जी

जीवन बहुआयामी है सो पुरुषार्थ भी।

    • रचनात्मक जैसे माता पिता का बच्चों के लिये।
    • गैर-रचनात्मक बच्चों का माता पिता के लिये।

हमारे पुरुषार्थ में कितने रचनात्मक कितने गैर-रचनात्मक !
गैर-रचनात्मक करते समय कर्म-सिद्धांत का ध्यान रखें कि इनका फल क्या होगा !!

ब्र. डॉ. नीलेश भैया

एक सेठ के दो बेटे थे छोटा बेटा समय बर्बाद करता रहता था। बड़ा बेटा कर्म और धर्म में पुरुषार्थ करता था। एक बार छोटे बेटे ने पिता से ₹5000 मांगे, पिता ने तुरंत मना कर दिया। थोड़ी देर बाद बड़ा बेटा आया, उसने 5 लाख मांगे पिता ने तुरंत दे दिए।
कारण ?
समय बर्बाद करने वाले को कुछ भी नहीं मिलता।
हम अपने जीवन को देखें… क्या हम अपने आत्म-कल्याण के लिए समय का सदुपयोग कर रहे हैं या निरर्थक बातों में आपस में लड़भिड़ रहे हैं। हम में से ज्यादातर की उम्र अच्छी हो गई है, अगले जन्म की तैयारी करें या इस जन्म में पहले की तरह समय बर्बाद करते रहें ? यदि ऐसा ही करते रहे तो अगले जन्म में हमको ₹5000 भी नहीं मिलेंगे !

आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी(23 सितम्बर)

ब्रह्मचारी बसंता भैया श्री दीपचंद वर्णी जी से तीर्थयात्रा जाते समय, दिशा निर्देश मांगने गये।
3 रत्न हमेशा पास रखना – क्षमा, विनय, सरलता
तथा
3 को पोटली से बाहर मत आने देना आलस, गालियां तथा कृतघ्नता।

मुनि श्री मंगल सागर जी

कोई चोर आपके घर में घुसे, सोने चाँदी को तो देखे भी नहीं, आपके घर की गंदगी उठा ले जाए तो आपको दु:ख होगा क्या ?
इसी तरह यदि कोई आपके गुणों को तो देखे नहीं, सिर्फ़ अवगुण ग्रहण करे तो आप दुखी होंगे क्या ?
दूसरा आपके हिस्से परोपकार भी आएगा क्योंकि वह अवगुणों का बखान करके खुश हो रहा है।
यदि आप अपना अपमान समझते हो तो यह तो आपने खुद अपनी आत्मा का अपमान किया, बार-बार उसका चिंतन करके।

आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी(23 सितम्बर)

आजकल हड़प्पा(हड़पना) पद्धति चल रही है।
लेकिन ध्यान रहे… अगले जन्म में यदि हड़पने वाला पेड़ बना तो जिसका हड़पा है वो साइड में यूकेलिप्टिस का पेड़ बनेगा जो तुम्हारा सारा पानी खींच लेगा।

आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी

स्वर्ग में सिंहासन भर गये। एक नये देवता ने सिंहासन खाली कराने के लिये अफवाह फैला दी कि नरक में बहुत सुंदर स्वर्ग बनाया जा रहा है। सिंहासन खाली होने लगे। Climax ये रही कि अफ़वाह फैलाने वाला देवता भी चल दिया। यह सोचकर कि कहीं सच में ही नया/ सुंदर स्वर्ग बन न रहा हो!!

ब्र. डॉ. नीलेश भैया

  • बाहर एकता रखनी है, अंदर एकत्व भाव।
  • सोते समय भी सावधानी बरतते हैं/ तीनों मौसमों में भी, फिर भावों में क्यों नहीं ?
    अगर सावधानी इस मौसम(बरसात)में नहीं रखी तो हड्डी टूटने का डर रहता है और भावों में नहीं रखी तो हड्डी मिलेगी ही नहीं, या तो हम नरक जाएंगे या पेड़-पौधे(एकेन्द्रिय जीव) बनेंगे।
  • मृत्यु को टाला नहीं जा सकता, सुधारा जा सकता है।

आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी (25 अगस्त 2024)

अगर पर्युषण पर्व पर इस कविता को यथार्थ में समझ लिया जाये तो ये पर्व मनाना निस्संदेह सफल हो जायेगा:—
मैं रूठा, तुम भी रूठ गए
फिर मनाएगा कौन ?
आज दरार है, कल खाई होगी
फिर भरेगा कौन ?
छोटी बात को लगा लोगे दिल से,
तो रिश्ता फिर निभाएगा कौन ?
न मैं राजी, न तुम राजी ,
फिर माफ़ करने का साहस दिखाएगा कौन ?
एक अहम् मेरे, एक तेरे भीतर भी,
इस अहम् को फिर हराएगा कौन ?
मूँद ली दोनों में से गर किसी दिन एक ने आँखें….
तो कल इस बात पर फिर पछताएगा कौन ?
क्षमायाचना के साथ।

(डॉ.पी.ऐन.जैन)

ब्रह्म में लीन होना ब्रह्मचर्य है। इससे जीवन में निराकुलता आती है और दृष्टि अंतर्मुखी होती है। दुनिया से विरक्त हो जाना ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य एक अंक है और बाकी सब शून्य।
10 साल के बच्चे का वजन यदि 50 किलो हो जाए, तो हानिकारक होता है। ऐसे ही 10 साल के बच्चे को अगर काम क्रियाकलाप का ज्ञान हो जाए, तो कितना घातक होगा!
पैदा होते हैं काम के द्वारा, जीवन भर चलता है काम। अंत भी होता है काम के साथ। जब कि होना चाहिए था, सब कुछ राम के नाम। कीचड़ में पैदा होकर कमल बनना था।
स्पर्शन इंद्रिय पूरे शरीर में होती है। जिसने इसको नियंत्रित कर लिया, उसका नियंत्रण पूर्ण हो गया।
वैरागी/ ब्रह्मचारी खड़े-खड़े घर से निकल जाते हैं; रागी पड़े-पड़े घर से निकाले जाते हैं।
सावधानी: तामसिक और गरिष्ठ भोजन नहीं करना चाहिए। फटे कपड़े भी नहीं पहनना चाहिए(स्त्रियों को)।
अष्टमी/ चतुर्दशी को ब्रह्मचर्य तथा शेष दिनों में एक पत्नी/पति व्रत तो सबको धारण करना ही चाहिए।

आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी

मैं और मेरापन/ पुराने विचारों को छोड़ना भी आकिंचन्य/ अपरिग्रह है।
शक्ति दो प्रकार की होती हैं… एक स्मरण-शक्ति जैसे पुराने विचार, दूसरी दर्शन-शक्ति यानी वर्तमान को देखना/ असलियत को देखना। व्यवहार में आकिंचन्य को अपरिग्रह भी कहते हैं।
परिग्रह वस्तु का नहीं, वस्तु के साथ जुड़ी आसक्ति है।
नौ ग्रहों से बड़ा दसवाँ परिग्रह होता है लेकिन जो निजग्रह में आ जाते हैं उन्हें ये ग्रह सताते नहीं।
अकेले होने को कहा है, निराश होने को नहीं। जिसने अपना फोकस आत्मा पर कर लिया वह सुखी हो गया जैसे ठंडाई में बहुत सारी चीज़ मिलाई जाती हैं पर शक्कर कम या ज्यादा हो उस पर बहुत फ़ोकस होता है।
चार कषाय( क्रोध, मान, माया, लोभ) और पाँच पाप (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह) इनको छोड़ने का नाम भी आकिंचन्य है।
शांति पानी है तो कल्पना करें किसी ऊँचे पहाड़ पर हम चढ़ रहे हैं साथ में बहुत सारे सर्दी के कपड़े हैं जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते जाएंगे एक-एक कपड़ा छोड़ते जाएँगे, आखिर में तो शरीर भी भारी लगने लगता है। सबसे संबंध छोड़ने पर ही शांति मिलती है। इसीलिए कहते हैं कि मोक्ष में शरीर की भी ज़रूरत नहीं।

आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी

संपूर्ण वस्तु/ वस्तुओं को छोड़ना त्याग है।
दान और त्याग में अंतर… दान पराधीन है, इसमें परिग्रह रह जाता है, विकल्प होते हैं, अच्छी और खोटी चीजों का भी होता है, दोनों पक्षों का उपकार होता है।
त्याग में स्वाधीनता, अपरिग्रह, निरपेक्ष।
सिर्फ त्याग कुछ चीज़ों का होता है जैसे रागद्वेष, परिवारजन। यह साक्षात मोक्ष का कारण है।
ज्ञान और अभय का सिर्फ़ दान होता है। यह परोक्ष से मोक्ष का कारण।
कुछ चीजों का दान भी होता है और त्याग भी जैसे आहार दान और औषधि।
त्याग में तेरा तुझको अर्पण यानी कर्म का कर्म को, कर्म से मुक्ति पाने।
वृक्ष, नदी, बादल त्याग करते हैं सिर्फ मनुष्य है जिनमें बहुत कम लोग त्याग कर पाते हैं, ज्यादातर तो पीड़ा/ समस्या ही देते हैं और कुछ नहीं।
लेने वाले का हाथ नीचे रहता है, देने वाले का ऊपर जैसे बादल और समुद्र।
दानी देता है, त्यागी दानी से भी नहीं लेता। दानी के दान से धन शुद्ध हो जाता है, त्यागी की चेतना शक्ति।
ऐसे-वैसे कैसे हो गए ? दान से और कैसे थे वे ऐसे-वैसे कैसे हो गए ? दान का पैसा खाने से या ना देने से।

आर्यिका श्री पूर्णमति माताजी

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