महावीर भगवान के निर्वाण दिवस की बधाई।
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इंद्रिय नियंत्रण…
राजसिक/ तामसिक भोजन से अपना व सामने वालों का भी नुकसान होता है।
स्वयं का शरीर तथा भाव खराब। दूसरे राजसिक से जलन तथा तामसिक देख कर प्रेरित हो जाते हैं।
मुनि श्री मंगलानंदसागर जी
मान चोट पहुँचाता है, मानी को चोट पहुँचती है।
स्वाभिमान न चोट पहुँचाता है न उसे चोट पहुँचती है क्योंकि वह पद का सम्मान करता/चाहता है, अपना नहीं।
ऐसा कृत्य न करुँ जिससे मेरे पद का अपमान हो जाये, यह स्वाभिमान है।
लोग मुझे मान दें, यह अभिमान है।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
ज्ञान + मोह = संसार,
ज्ञान – मोह = मोक्ष।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी (24 अक्टूबर)
क्या वीतरागता संवेदनहीनता नहीं है ?
संवेदना बाह्य है। गृहस्थ भी बाह्य में रहते हैं, उन्हें संवेदनशील होना चाहिये।
साधु अंतरंगी, उन्हें वीतरागी।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
कुछ दुःख Unavoidable होते हैं जैसे शारीरिक अस्वस्थता, आर्थिक, सामाजिक। पर ज्यादा दुःख Avoidable/ self-created/ हमारा चयन होता है, Actual में वे दुःख होते ही नहीं हैं।
जैसे माँ के 4 पुत्रों में 1 धर्मात्मा, 3 नास्तिक। माँ के निधन पर तीनों ने मिलकर धर्मात्मा को बहुत पीटा।
कारण ?
तू ही मंदिर जाता था, तभी भगवान को याद आ गया कि इनकी माँ तेरे साथ रहती है। उसकी उम्र हो गयी है।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
दिगंबर साधु तपस्या में लीन थे। चोर नग्न साधु को अपशकुन मानकर उपसर्ग करने लगा।
उपसर्ग समाप्त होने पर साधु ने चोर से कहा –> पहले क्यों नहीं आये ? मेरे कर्म पहले ही कट जाते।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
प्रभु खोजने* से नहीं मिलते हैं।
उनमें खो-जाने** से मिलते हैं।
(डॉ. सविता उपाध्याय)
* ज्ञान।
** श्रद्धा/ भक्ति।
आत्मा को समझाने की आवश्यकता नहीं, वह तो ही खुद समझदार है, आत्मा को समझना है।
ऐसे ही भगवान/ गुरु को समझना है।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
प्रश्न यह नहीं कि शक्ति कितनी है, सामग्री या संपत्ति कितनी है! प्रश्न है कि व्यक्ति कैसा है? यह तीनों साधन तो अधम को भी मिल जाते हैं। ये तो अवनति के कारण हैं; विरले ही इनके माध्यम से प्रगति करते हैं।
पिछले जन्म से रत्न की गाड़ी लेकर आए थे, क्या कचरा भर के वापस जाना चाहते हैं?
प्रश्न यह नहीं कि सीढ़ी है या नहीं; प्रश्न है कि सीढ़ी कहाँ लगी है! कुएं के पास, नीचे जाने के लिए या छत के पास, ऊपर चढ़ने के लिए?
व्यक्ति नहीं, अभिव्यक्ति महत्वपूर्ण है; अभिप्राय महत्वपूर्ण है। मधुर व्यवहार लोकप्रिय बनने के लिये / प्रसिद्धि पाने के लिए अपनाया है अथवा आत्मस्वभाव के निकट आने के लिए?
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी (22 अक्टूबर)
रसना को नागिन क्यों कहा ?
इसी के चक्कर में आकर Overeating करके पेट/ सेहत में ज़हर घोलते हैं।
इसी से ज़हरीले वचन निकलते हैं और बोलकर मुँह रूपी बिल में नागिन की तरह छुप जाती है।
चिंतन
आँसू चाहे खुशी के हों या दु:ख के, दृष्टि को तो धूमिल करते ही हैं।
इसीलिए वीतरागता का इतना महत्व है।
चिंतन
सुखी रहने के उपाय –> दुखों को स्वीकारें; सुखों का प्रतिकार करें।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
मन की आज्ञा मानना नहीं,
नहीं तो नौकर कहलाओगे।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
यदि कोई एक बार हमारा अनादर कर देता है, तो उस अनादर को हम सौ बार दोहराते हैं।
यदि वह दंड का अधिकारी है, तो हम सौ गुने अपराधी हुए!
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
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