हर केंद्र की परिधि होती है।
और हमारी ?
परिधि वृत्ताकार होती है, किन्तु हम डर कर या रागवश एक दिशा के क्षेत्र को सिकोड़ लेते हैं और द्वेषादि के क्षेत्र को बढ़ा लेते हैं।
वस्तुओं के साथ ऐसा नहीं है; पुराना मोरपंख किताब में वहीं मिलता है, जहाँ वह रखा गया था।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
गृहस्थ जीवन जीते हुए साधना कैसे करें ?
तुलाराम व्यापारी सामान तौलते समय दृष्टि तराजू पर रखता था। जब तराजू समानांतर हो जाती थी तब तक दृष्टि में न प्रिय होता था, न दुश्मन।
समता भाव से ही तराजू समानांतर होगी।
मुनि श्री मंगलानंद सागर जी
निद्रा आने पर ग्लानि का भी भाव रहता है।
जैसे निद्रा आने पर मनपसंद भोजन, प्रिय बच्चों में भी रुचि नहीं रहती।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
भाग्य के प्रकार –>
1. सौभाग्य – श्रावक (अच्छे परिवार में जन्मा)।
2. अहोभाग्य – श्रमण (मुनि/ साधु), जिन्होंने सौभाग्य को Encash कर लिया।
3. दुर्भाग्य – श्रावक/ श्रमण Encash न कर पायें ।
मुनि श्री मंगलानंद सागर जी
अभिमान में-> मैं बड़ा – मैं बड़ा।
मायाचारी में-> तू बड़ा – तू बड़ा।
लक्ष्य……….-> बड़ा मानना।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी (9 दिसम्बर)
“G” से Generator,
“O” से Operator,
“D” से Destroyer,
अपने लिये मैं खुद तीनों हूँ।
मुनि श्री मंगलसागर जी
प्रायः सुनते हैं –> “बच्चों के लिये जी रहे हैं।“
यानी पराश्रित/ चिंतित –> रोगों को निमंत्रण।
सही –> अपने लिये जी रहे हैं –> निश्चिंतता/ निरोगी।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
खाली कमरा बड़ा दिखने लगता है, किसी (वस्तु) से टकराव नहीं।
कमरा, कमरा बन जाता है।
(ज्यादा सामान भरने से कमरे का महत्व समाप्त हो जाता है)
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
प्रभु के रोज़ दर्शन करते हैं। उनसे जुड़ क्यों नहीं पाते जबकि संसारियों से तुरंत जुड़ जाते हैं।
कारण ?
मोह और अभिमान।
मोह से संसार छूट नहीं पाता, अहम्, अर्हम् से मिलने नहीं देता।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी (8 नवम्बर)
संसार में सुख बहुत हैं/ सहयोगी चीज़ें बहुत हैं, आपके सोकर उठने से पहले सूरज उठ आता है। संसार/ मार्गों को प्रकाशित कर देता है।
यदि हम दुखी हैं तो मानिये या तो हमारा ढंग गलत है या गलत ढंगी से जुड़े हैं।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
बालक अबोध होते हैं, उनमें स्वाभाविक दोष रहते हैं।
पालक सबोध होते हैं, उनमें अस्वाभाविक दोष रहते हैं।
बालकों की तीव्रतम कषाय (क्रोधादि) भी पालकों की न्यूनतम से कम होती है।
ब्र. डॉ. नीलेश भैया
Makeup की आयु में धर्म कर लेना,
क्योंकि Checkup की आयु में तो धर्म करने लायक बचोगे ही नहीं।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
गुण/ चारित्र का विकास बिल्ली की आवाज़ की तरह नहीं होना चाहिए… जो पहले तेज़ और बाद में मंद मंदतर होती चली जाती है।
बल्कि धावक की तरह होना चाहिए जो पहले धीरे-धीरे दौड़ता है और बाद में शक्ति के अनुसार पूरी गति पा लेता है। नदी जैसा होना चाहिए… पहले छोटी धार फिर बढ़ते-बढ़ते विशाल धारा जो समुद्र में जाकर मिल जाती है।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी के सान्निध्य में भगवती आराधना – श्र्लोक 284 का स्वाध्याय
आचार्य श्री विद्यासागर जी के उपदेशों को संपादित किया आर्यिका अकंपमति माताजी (10 दिसम्बर)
प्रकृति हमारे शरीर की रक्षा करती है…
वर्षाकाल में पित्त पैरों में आ जाता है, जल से रक्षा होती है।
सर्दी में छाती में क्योंकि सर्दी का असर छाती पर ज्यादा होता है और पित्त की तासीर गर्म होती है।
गर्मियों में माथे में तब गर्मी का असर सर पर नहीं होता (गर्मी गर्मी को मारती है)।
आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी के सन्निध्य में भगवती आराधना- श्र्लोक 284 का स्वाध्याय
आचार्य श्री विद्यासागर जी के उपदेशों को संपादित किया आर्यिका अकंपमति माताजी (10 दिसम्बर)
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