Category: अगला-कदम
अपर्याप्तक के प्राण
1 इंद्रिय के 3 प्राण (स्पर्शन इंद्रिय, काय-बल, आयु), 2 इंद्रिय के 4 प्राण (3 + रसना), 3 इंद्रिय के 5 प्राण (4 + घ्राण),
योगों का काल
सत्य, असत्य, उभय तथा अनुभय प्रत्येक का काल अंतर्मुहूर्त। पूर्व दो की अपेक्षा उत्तरोत्तर का काल क्रम से संख्यातगुणा संख्यातगुणा है। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
निगोदिया
पर्याप्तकों तथा अपर्याप्तकों की प्रक्रिया अलग-अलग होती है। काय-स्थिति → निगोद में ही लगातार जन्म मरण… उत्कृष्ट → असंख्यात सागरोपम कोड़ा-कोड़ी सागर जैसे जलेबी का
प्रत्येक / साधारण
प्रत्येक व साधारण, वनस्पतिकायिक के 2 भेद हैं। प्रत्येक के 2 भेद ….सप्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित…. साधारण/ निगोदिया सहित सप्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित निगोद रहित। सप्रतिष्ठित कौन
क्षुद्र भव
क्षुद्र भव = लब्धि-अपर्याप्तक (1 श्वास में 18 बार जन्म मरण)। लगातार उत्कृष्ट जन्म – 2 इंद्रिय में – 80, 3 इंद्रिय में – 60,
काय
कर्मोदय से काय जीव को अनुभव कराती है कि वह स्थावर या त्रस (द्वींद्रिय से पंचेंद्रिय) जाति का जीव है। जाति, त्रस और स्थावर जीव-विपाकी
अपूर्व-करण में काम
अपूर्व-करण के कार्यों (बंधव्युच्छित्ति) को देखते हुए, इसके 7 भाग किये हैं। पहले, छठे व सातवें गुणस्थानों के कार्य बताये गये हैं। मेरे प्रश्न किये
अप्रमत्त
छठे गुणस्थान के क्षयोपशम-सम्यग्दृष्टि को सातिशय-अप्रमत्त में जाने के लिये तीनों करण तीन बार करने होते हैं: 1. अनंतानुबंधी की विसंयोजना के लिये। 2. सम्यक्-प्रकृति
अपूर्वकरण
अपूर्व करण में भी 4 कार्य…. 1. गुण-श्रेणी-निर्जरा = गुणित क्रम में, श्रेणी रूप (एक के बाद, एक कर्मों की लड़ियाँ), (असंख्यात गुणी) 2. गुण-संक्रमण
संयम और कषाय
संज्वलन के क्षयोपशम से सकल-संयम। संज्वलन का उदय तो निचले गुणस्थानों में भी पर 6 गुणस्थान तथा आगे सिर्फ संज्वलन का ही उदय। ऐसे ही
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