Category: अगला-कदम
सत्यादि योग
सत्य तथा अनुभय, मन व वचन योग; शरीर व पर्याप्ति नाम कर्मोदय से। असत्य व उभय में भी शरीर व पर्याप्ति नाम कर्मोदय पर मुख्य
मिश्र-वर्गणायें
आचार्य श्री के अनुसार ये भिन्न प्रकार की होती हैं क्योंकि सर्वार्थसिद्धि में सप्तविध वर्गणायें बतायी हैं, 7वीं मिश्र होने पर ही बनेंगी। मुनि श्री
आहारक शरीर
आहारक शरीर की सीमा सामान्यत: मनुष्यलोक तक। आचार्य श्री विद्यासागर जी चूंकि ये समुद्घात है सो नन्दीश्वर द्वीप के जिनालयों की वंदना को भी जा
विक्रिया / वैक्रियक शरीर
विक्रिया में वैक्रियक शरीर नहीं बनता क्योंकि विक्रिया करने वाला औदारिक शरीर है, इसलिए विक्रिया में वैक्रियक वर्गणायें ग्रहण नहीं करता, ना ही अपर्याप्तक अवस्था
उपयोग
शुद्धोपयोग भी केवलज्ञान की अपेक्षा से अशुद्धोपयोग है । आचार्य श्री विद्यासागर जी
तीर्थंकर प्रकृति
भगवान की तीर्थंकर प्रकृति के उदय का अनुभाग तथा उदीरणा कम होने लगती है तब भगवान समवसरण छोड़ देते हैं। निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
परिणमन
स्कंध संख्यात/ असंख्यात/ अनन्त गुण वाले भी। ज्यादा गुण वाला कम गुण वाले को अपने रूप परिणमन करा लेता है। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (जीवकाण्ड
वेग/ उद्वेग/ निर्वेग
यदि भेद विज्ञान से कर्म/ नोकर्म/ आत्मा के स्वभाव की ओर देखें तो शरीर के प्रति आसत्ति का वेग कम होगा, उसे ही “निर्वेग” कहते
पुदगल / जीव
पुदगल एक प्रदेश से प्रारम्भ होकर संख्यात, असंख्यात, अनंत प्रदेशी तक। पर जीव में एक ही विकल्प… लोक का असंख्यातवाँ भाग (अवगाहना की अपेक्षा), समुद्धात
सासादन सम्यग्दर्शन में भाव
सासादन गुणस्थान उपशम सम्यग्दर्शन से गिरते समय होता है। दर्शन-मोहनीय की विवक्षा से न उदय, न उपशम महत्व का है, ना ही क्षयोपशम काम कर
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