Category: वचनामृत – अन्य
बहना
यदि निरंतर बहने/ चलने का स्वभाव हो तब बांध भी बना दो तो भी प्रगति/ चलने को रोक नहीं सकते। तब जल स्तर ऊपर चलने
तप / संयम
सोना तपाने से शुद्ध हो जाता है फिर भी सोने के तरल होने पर उसमें सुहागा डाला जाता है ताकि उसकी शुद्धता बनी रहे। श्रावक
संयम
रावण धर्म का पंडित, मज़बूत/ सुरक्षित किले के अंदर, बड़ी सेना का मालिक, फिर भी हार गया। जबकि राम थोड़ी सी सेना के साथ किले
धन संचय
संसार में धन संचय से समृद्धि/ प्रगति बताई, धर्म में दुर्गति। लेकिन संचित समृद्धि का सदुपयोग किया तो शाश्वत प्रगति। निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
पुण्य / पाप
पेट के लिये कमाना पुण्य, क्योंकि जीवों की रक्षा हो रही है, Detached-Attachment, पुण्य का बाप। पेटी के लिये कमाना पाप, लोभ की रक्षा हो
पूर्ण
पूर्ण को जाना नहीं जा सकता सिर्फ अनुभव किया जा सकता है जैसे पूरे चावलों को जानने चले (दबा-दबा कर देखा) तो चावल की जगह
रितुओं में त्याग
ऋतुओं में त्याग : अगहन – ज़ीरा पौसे – धना माघे – मिश्री फागुन – चना चैते-गुड़ बैसाखे – तेल जेठे – राई असाढ़े –
सेवा
सेवा करना चाहते हो तो ग्लानि और गाली को जीतना होगा। सेवा करने की क्षमता और गाली सहने की समता बढ़ानी होगी। मुनि श्री सौम्यसागर
प्रभुकृपा
“प्रभु का दास, कभी उदास नहीं, क्योंकि प्रभु है पास” तब सोच…. जो हो सो हो (हमको क्या) कर्मों का फल सुनिश्चित फिर संयोग वियोग
जीवन दर्पण
लिख रहा हूँ, यात्रा का विवरण, मैं बिना लेखनी*| मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (*अपने चारित्र के द्वारा प्रभावना करके)
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