Category: वचनामृत – अन्य
पाप / व्यसन
पाप में लाभ न दिखे फिर भी पाप करना व्यसन है। मुनि श्री सुधासागर जी
स्वीकृति
पुलिस अपराधी को तब तक पीटती रहती है जब तक वह अपराध स्वीकार नहीं कर लेता। हमको भी कर्म तब तक पीटते रहेंगे जब तक
मनुष्य / पशु
पशु के भय, आहार, मैथुन प्रकट होते हैं यानि कहीं भी/ कभी भी। विडम्बना यह है कि मनुष्य भी आज यही कर रहा है। उन्हीं
तेरा / मेरा
तू मेरा न बन सका, कोई बात नहीं; कम से कम अपना तो बन जा। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (अपना ही तो सब कुछ है,
आनंद
पूर्ण आनंद साधु को ही जैसे बुखार उतरने पर आता है। गृहस्थ का आनंद तो वैसा है जैसे मरीज का बुखार 105 डिग्री से 101
निडरता
निडरता, ज्ञान (सांप नहीं है, रस्सी है) तथा श्रद्धा से (देव, गुरु, शास्त्र व कर्म सिद्धांत पर)। भविष्य के लिये – “जो हो, सो हो”
जीवन
जीवन एक खेल है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम खिलाड़ी बनें या खिलौना ! निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
समस्या / व्यवस्था
समस्या को व्यवस्था में बदल लें/ कर लें, तो समस्या, समस्या नहीं रहती/ दु:ख नहीं होता। जैसे कांटा लगा (समस्या), सुई की व्यवस्था की, कांटा
इच्छा / सुख
इच्छाओं के अभाव मात्र से सच्चा सुख नहीं मिलता। अभाव तो लौमड़ी को भी था, कहती थी….अंगूर खट्टे हैं। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
लक्ष्य
जीवन का लक्ष्य मनोरंजन नहीं, रमण है; बाह्य रमण (विषय-भोगों में) अधोगमन कराता है,पर गिरना ध्येय कैसे हो सकता है! अंतरंग/ आत्मा में रमण उर्ध्वगमन
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