Category: अगला-कदम
भेद-विज्ञान
व्यवहार तथा निश्चय नय से जब हम पर-पदार्थ को जानेंगे तो एक भेद रेखा खिंच जायेगी, इसी का नाम “भेद-विज्ञान” है । मुनि श्री प्रणम्यसागर
अर्थ/व्यंजन पर्याय
अर्थ-पर्याय अगुरूलघु गुण का विकार, व्यंजन-पर्याय नोकर्म का विकार । मुनि श्री सुधासागर जी
तीर्थंकर प्रकृति में अनुभाग
तीर्थंकर-प्रकृति बंध में अनुभाग अलग अलग होता है (अलग अलग व एक तीर्थंकर का), श्रेणी चढ़ते समय उत्कृष्ट हो जाता है, सामान्यकेवली का भी ।
उपयोग
अशुभपयोग -> औदयिक भाव, शुभोपयोग -> क्षयोपशमिक, शुद्धोपयोग -> क्षयोपशमिक/औपशमिक/क्षायिक (श्रेणी चढ़ते समय) ।
सम्मूर्च्छन
ढ़ंके भागों में सम्मूर्च्छन से ज्यादा उत्पत्ति होती है, इसीलिये स्त्रियों में सम्मूर्च्छन से ज्यादा उत्पत्ति होती है । मुनि श्री सुधासागर जी
अपकर्षण
अपकर्षण में …. पाप प्रकृतियों की स्थिति अनुभाग दोनों कम होते हैं, पुण्य की स्थिति तो कम होती है पर अनुभाग बढ़ जाता है ।
मरणांतक समुद्धघात
मरणांतक समुद्धघात चारों गतियों के जीवों को हो सकता है, सर्वार्थसिद्धि तक के जीवों को होता है । ये जीव पहले ही आयुबंध किये होते
मिथ्यात्व के 5 भेद
मिथ्यात्व के 5 भेद ग्रहीत तथा अग्रहीत दोनों में घटित होते हैं । मुनि श्री सुधासागर जी
आत्मा से कर्मबंध
आत्मा से 8 प्रकार के कर्म तो हर समय बंधे रहते हैं, पर नोकर्म/भाषा/मनोवर्गणायें कभी बंधी रहती हैं कभी नहीं, जैसे विग्रहगति, एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय, असंज्ञी
निगोद के कारण
इतर-निगोद जाने का कारण तो तीव्र पाप है, पर नित्य-निगोद में जीव स्वभाववश रहता है । मुनि श्री प्रमाणसागर जी
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