Category: अगला-कदम
देव आयु बंध
देवगति से आकर पुन: देव आयु बंध अपर्याप्त काल में नहीं बंधती । पर्याप्तक होने के अंतर्मुहूत बाद बंध सकती है । श्री राजवार्तिक –
शुद्धोपयोग
यह तो कषाय रहित अवस्था में होता है, यानि कि 12वें गुणस्थान से, वैसे 7वें गुणस्थान से माना गया है क्योंकि यहाँ अंश मौजूद हैं
वेदक सम्यक्त्व
सम्यक्त्व प्रकृति के उदय को अनुभवन* करने वाले जीव का तत्वार्थ श्रद्धान । इसी का नाम क्षयोपशम सम्यग्दर्शन है । श्री धवला – 1/173 *
शरीरों की वर्गणाऐं
यद्दपि सामान्य रूप से औदारिक, वैक्रियक व अहारक शरीरों का आहार वर्गणाओं से ही निर्माण कहा गया है । पर वास्तव में तीनों की वर्गणायें
भाव और काल
अनादि-अनंत : अभव्य के असिद्दता, धर्मास्तिकाय के गमन हेतुता आदि अनादि-सांत : भव्य के असिद्दता, भव्यत्व भाव, मिथ्यात्व, असंयम आदि सादि-अनंत : केवल ज्ञान, केवल
द्रव्य
निष्कृय द्रव्य एक दूसरे के सहकारी नहीं बल्कि माध्यम हैं, जैसे धर्म पुदगल और जीवों को चलने में माध्यम हैं । श्री एस. एल. जैन
आत्माओं के भेद
1. मिथ्यादृष्टि (बहिरात्मा) – उत्कृष्ट – पहले गुणस्थान वाले मध्यम – दूसरे गुणस्थान वाले जघन्य – तीसरे गुणस्थान वाले 2. सम्यग्दृष्टि (अंतरात्मा) – जघन्य –
संवर
भाव संवर के 62 भेद – 5 व्रत, 5 समिति, 3 गुप्ति, 10 धर्म, 12 अनुप्रेक्षा, 22 परिषह जय और 5 चरित्र । विशुद्ध परिणामों
शुद्धोपयोग
केवलज्ञान की अपेक्षा शुद्धोपयोग भी अशुद्धोपयोग है, अशुभपयोग और शुभपयोग की अपेक्षा ही शुद्धोपयोग है । आचार्य श्री विद्यासागर जी
मार्गणा
ईहा, ऊहा, अपोहा, मीमांसा एकार्थवाचक नाम हैं । आदेश या विस्तार से प्ररूपणा करना, मार्गणा है । जैनेन्द्र सिद्धांत कोश – 2/296
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