Category: अगला-कदम
मन:पर्यय
विपुलमती मन:पर्यय ज्ञानी वर्धमान चारित्री ही होते हैं, अत: वे उपशम श्रेणी आरोहण नहीं करते । यदि वे उपशम श्रेणी आरोहण करेंगे तो यथाख्यात चारित्र
पहले दो शुक्लध्यान
पहले दो शुक्लध्यान पूर्ण श्रुतकेवली के (उत्कृष्ट की अपेक्षा, साधारण रूप से 5 समिति तथा 3 गुप्ति धारी के भी) होते हैं । ये वितर्क
लेश्या
6,7 गुणस्थान में सामान्यत: शुभ लेश्यायें रहतीं हैं, पर आर्त ध्यान के समय अशुभ लेश्या भी हो जाती है । पं.रतनलाल बैनाड़ा जी
नय और दर्शन
नय दृष्टिकोण का विषय है, दर्शन अभिप्राय का विषय है (कुमति, सुमति दोनों)। पं.रतनलाल बैनाड़ा जी
प्रदेशत्व
प्रदेशत्व से आकार बनता है, इसीलिये प्रदेशत्व गुण के विकार को व्यंजन पर्याय कहा है । और अन्य गुणों के परिणमन को अर्थ पर्याय कहा
विभंग ज्ञान
अपर्याप्तक अवस्था में विभंग ज्ञान नहीं रहता । इसे लेकर अगले भव में नहीं जा सकते । श्री रतनचंद्र मुख्तार जी – 276
दर्शन
विग्रहगति में तीन दर्शन होते हैं । चक्षुदर्शन – जो जीव पर्याप्तक अवस्था से आ रहा हो । अचक्षुदर्शन अवधि दर्शन श्री रतनचंद्र मुख्तार जी
वितर्क
वितर्क श्रुतज्ञान को कहते हैं, या विशेष रूप से तर्क/विचार करने को वितर्क कहते हैं । तत्वार्थ सूत्र – 9/42
शुक्ल ध्यान
पहला शुक्ल ध्यान – तीनों योगों में होता है, दूसरा शुक्ल ध्यान – तीनों में से किसी एक में होता है, तीसरा शुक्ल ध्यान –
पर्याप्ति/प्राण
1. विग्रह गति में तीन प्राण तो सबके रहते ही हैं (आयु, इंद्रिय – एक , कायबल – कार्मण/तैजस शरीर की अपेक्षा) 2. पर्याप्तियां पूर्ण
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