Category: अगला-कदम
द्रव्य लेश्या
वर्ण-नामकर्म के उदय से शरीर का वर्ण होता है। इसे लेश्या इसलिए कहा क्योंकि यह शरीर का रंग बनाती है और रंग से गोरे/ काले
अरहंत के मन
संसारी के वचन, मन पूर्वक ही। ऐसा मन सयोगी के नहीं, इसलिये मन उपचार से कहा क्योंकि वचन की प्रवृत्ति तो हो रही है। उपचार
स्व/स्वरूप संवेदन
स्व संवेदन… मैं हूँ/ आत्म संवेदन। स्वरूप संवेदन जैसे गर्म पानी जो उसका स्वभाव नहीं है (पर वर्तमान में उसका स्वरूप गर्म है) मुनि श्री
षटस्थान हानि
कृष्ण आदि लेश्या में षटस्थान हानि – 1. अनंतभाग हानि 2. असंख्यात भाग हानि 3. संख्यात भाग हानि और और बडी हानि – 4. संख्यात
कषाय और आयुबंध
आयुबंध ना तो उत्कृष्ट कषाय में नाही उत्कृष्ट विशुद्धता में होती है। तद्भव मोक्षगामियों की विशुद्धि उत्कृष्ट के करीब होती है, इसीलिये शायद उनके आयुबंध
क्षयोपशम
क्षयोपशम में जब उदयाभावी क्षय होता है तो उपशम क्यों ? योगेन्द्र उपशम में कर्म की शक्ति कम करके उदय से पहले अभाव किया जाता
आयुकर्म
आयुकर्म कुछ अपेक्षाओं से बहुत खतरनाक – 1. एक बार बंधा तो बदलेगा नहीं। 2. इसका उपशम / क्षयोपशम / क्षय नहीं होता है। मुनि
विभंग ज्ञान
इसका अर्थ… मिथ्यात्व या अनंतानुबंधी के उदय से अवधिज्ञान की विशिष्टता/ समीचीनता भंग होकर अयथार्तता आ जाती है। जीवकाण्ड-गाथा- 307
आयुबंध
शैल समान क्रोध में भी आयुबंध हो सकती है, बस इसके उत्कृष्ट में आयुबंध नहीं होगी। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
संक्लेश
संक्लेश परिणामों से बार-बार अपर्याप्तक निगोदिया बनते हैं। उनका ज्ञान जघन्यतम होता है। यानि संक्लेश, अज्ञान के अनुपात में होता है। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
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