एक सेवक ना आये, डाँटो;
दूसरा ना आये, प्यार से कारण पूछो;
तीसरा ना आये, तो पहले से क्षमा माँगो (पापोदय मेरा था, डाँट तुझे पड़ गयी )

चिंतन

भाव प्रधानता का मतलब यह नहीं कि भावों से कार्य की पूर्णता कर लें, क्रिया की जरूरत ही नहीं,
बल्कि यह कि…
हर क्रिया भावपूर्ण होनी चाहिये ।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

स्वाभिमान से विनम्रता बढ़ती है, अभिमान में घटती है ।
स्वाभिमान में दोनों हाथ पीछे से आगे लाना है (पीछे वालों को साथ लेकर चलना), अभिमान में आगे से पीछे (सबको पीछे करके आगे बढ़ना) ।

मुनि श्री सुधासागर जी

कहते हैं – उतने पैर पसारिये, जितनी चादर होय, वरना मच्छर काटेंगे ।
तो क्या भाग्य के भरोसे पैर सिकोड़कर ही पड़े रहें ?
नहीं, चादर को लंबा करने का पुरुषार्थ करने से किसने मना किया !

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