Category: वचनामृत – अन्य
कर्म / आत्मा
कर्म सब काम कर रहे हैं, आत्मा तो जानती है, आत्मा करवाती है, कर्म करता है, क्योंकि शक्तियाँ (योग, मन, भाव) आत्मा में ही हैं।
दर्शन
जीवन की शुरुवात दर्शन से ही होती है। प्रकार… 1. बाह्य…. जो चर्म इन्द्रियों से होता है। 2. अंतरंग… सम्यग्दर्शन*, जिसके लिये गुरु की आवश्यकता
मन
आचार्य श्री विद्यासागर जी – “अपना मन, अपने विषय में क्यों न सोचता” कैसी बिडम्बना है ! जो मन अपने सबसे करीब है, उसके बारे
उपकार
“दु:खीजनों को, तज क्यों जाऊँ मोक्ष, मैं सोचता हूँ।” जैसे माँ सबको खिलाकर खाती है, खिलाकर तृप्त हो जाती है। पर माँ तो अपने कुछ
अंतिम सीख
ऐसे मरीज़ों को क्या सीख दें जिनका अंत निश्चित/ करीब हो ? डॉ. पी. एन. जैन ऐसी बीमारियाँ/ स्थिति आने का मतलब है …उनका पुण्य
जन्म/मरण के परे
मोटी सी किताब में यदि बीच में एक ही पन्ना हो, पहले तथा बाद के सारे पन्ने फटे हों तो ज़िज्ञासा तो होगी न !
समझदार
समझदार वह, जिसकी आँखें सामने वालों की बंद होती आँखें देखकर खुल जायें। मुनि श्री विशालसागर जी
सरलता
सरल रेखा दिखती आसान है पर खींचने में बहुत सावधानी/ यत्नाचार चाहिये। आचार्य श्री विद्यासागर जी
मान
मान को प्राय: हम बो* देते हैं, फिर मान की फसल लहराने लगती है। साधुजन उसे बौना कर देते हैं तब वह न वर्तमान में
आसन
ध्यान/ सामायिक में आसन बदलने में दोष नहीं, हाँ नम्बर ज़रूर कम हो जायेंगे। मुनि श्री सुधासागर जी
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