Category: अगला-कदम
अवगाहनत्व
धर्म/अधर्म/काल में अवगाहनत्व शक्ति नहीं होती । आकाश में तो पूर्णता और सब द्रव्यों के लिये होती है पर जीव/पुदगल में भी ये शक्ति होती
विग्रह/ऋजु गति
विग्रह गति में जीव छहों दिशाओं में जा सकता है, जबकि ऋजु गति में सिद्ध भगवान, ऊर्ध्व दिशा में ही जाते हैं । निधि-मुम्बई
विसंयोजना
अनंतानुबंधी की विसंयोजना चारौं गतियों में होती है । कषायपाहुड़ – II पेज 220 & 232 स्व. पं श्री रतनलाल बैनाड़ा जी
आचार
दर्शन, ज्ञान, चारित्राचार के बाद तपाचार (निर्जरा में तेजी के अलावा) पहले तीनों को अभेद रूप करने के लिये आवश्यक है, जैसे हलुए का स्वाद/सुगंधि
भय
मिथ्यादृष्टि संसार में भयभीत रहता है, सम्यग्दृष्टि संसार से । मुनि श्री संस्कारसागर जी
अज्ञान-भाव
अज्ञान-भाव : 1. औदायिक हैं – मोक्षमार्ग की अपेक्षा । जब ज्ञान की कमी को विषय बनाते हैं । 2. क्षयोपशमिक हैं – ज्ञानावरण की
स्व व परमात्म चिंतन
आचार्यों ने स्व-चिंतन को उत्तम, देह को मध्यम, विषयों को अधम और पर-चिंतन को अधमाअधम कहा है । परमात्मा भी तो “पर” है, उसका चिंतन
प्राण
प्राण, शरीर तथा शरीर से सम्बंधित वस्तुओं को चलाने में सहायक होते हैं । (प्राण = इन्द्रियां+मन,वचन,काय बल+उच्छवास+आयु) 1. अंतरंग – चेतन प्राण 2. बाह्य
काल
काल को अप्रदेशी कहा पर अप्रदेश से अस्तित्व रहित नहीं बल्कि अन्य प्रदेशों का अभाव का आशय है । काल को एक प्रदेशी भी कहा
बंध / बद्ध
बंध वर्तमान के, बद्ध (जैसे बद्धायुष्क) जो बंध चुका है/सत्ता में । आचार्य श्री विद्यासागर जी
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