Category: अगला-कदम
आयुकर्म
अप्रमत्त* के ही आयुकर्म की उदीरणा नहीं है बाकी सब (निचले गुणस्थान वाले) तो आयुकर्म का अपव्यय ही करते हैं । आचार्य श्री विद्यासागर जी
आहारक में प्राण/पर्याप्तियाँ
आहारक शरीर बनते समय 10 प्राण ही रहेंगे क्योंकि जब आहारक – शरीर नामकर्म का उदय होता तब औदारिक का उदय नहीं रहेगा । ऐसे
आत्मा का स्वरूप
इंद्रियातीत, अमूर्तिक आत्मा ही नहीं, आत्मा के गुण भी होते हैं । मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
एकत्व
हर जीव का अपना-अपना केन्द्र, द्रव्य-रूप तथा पर्याय/गुण-रूप परिधि होती है । हर जीव अपने केंद्र पर एक पैर रखकर अपनी परिधि पर दूसरा पैर
पुरुषार्थ
पुरुषार्थ घातिया कर्मों पर, उसमें भी विशेष रूप से मोहनीय पर काम करता है । मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
निसर्गज़ / अधिगमज़
निसर्गज़/अधिगमज़ सम्यग्दर्शन में ही नहीं, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में भी लगता है । आचार्य श्री विद्यासागर जी
अभाव / पूर्वक
रत्नत्रय के अभाव में मोक्ष नहीं, रत्नत्रयपूर्वक ही मोक्ष होता है । ऐसे ही शुभोपयोगपूर्वक शुद्धोपयोग, क्षयोपशम पूर्वक क्षायिक-सम्यग्दर्शन होता है, अभाव से नहीं ।
मुनि के आहार में बंध
अशुद्ध आहार से पाप बंध, शुद्ध आहार से पुण्य बंध, शुद्धोपयोग से निर्जरा । (क्योंकि क्षुधा तो है ना) ज्ञानशाला
संवर / निर्जरा
संवर निर्जरा चारों गतियों में होती है । देव/नारकियों के सम्यग्दर्शन प्राप्ति के समय असंख्यात गुणी निर्जरा तथा संवर तो पहले से तीसरे गुणस्थान की
उपशम / उपशमन
उपशमन अंतर्मुहूर्त के लिये, उपशम (सदवस्था रूप) – 66 सागर तक । आचार्य श्री विद्यासागर जी
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