Category: अगला-कदम

क्षयोपशम सम्यग्दर्शन

जब क्षयोपशम सम्यग्दर्शन, सम्यक् प्रकृति के उदय से होता है तो इसके भाव को औदयिक-भाव क्यों नहीं कहा ? सम्यक् प्रकृति का उदय मुख्य कार्य/

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कर्म / नोकर्म

नोकर्म शरीरादि। “नो” = ईषत्/ अल्प/ नहीं भी/ विपरीत (कर्म से क्योंकि कर्म तो आत्मा का घात करते हैं, नोकर्म नहीं या ईषत सुख/दु:ख देते

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संवेग

संवेग संसार से भयभीत होना। संवेग धर्म को ग्रहण करने की पात्रता देता है। संवेग के अभाव में पाप भी उतनी ही Intensity से किये

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षट स्थान पतित/ वृद्धि

पतित वृद्धि दोनों एक साथ कैसे ? योगेन्द्र पहले अनंत भाग, फिर असंख्यात भाग, संख्यात भाग हानि, संख्यात गुणी वृद्धि, असंख्यात गुणी, अनंत गुणी वृद्धि।

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उदयाभावी क्षय

उदयाभावी क्षय… उदय का अभाव रूप क्षय। जो कषाय उदय में आने के एक समय पहले ही अन्य कषाय रूप परिवर्तित होकर उदय मे आये।

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कर्म का बँटवारा

कर्म प्रकृतियों का एक भाग सर्वघाति को मिलता है तथा अनंत बहुभाग देशघाति को मिलता है । (तभी क्षयोपशम सम्भव होगा…कमला बाई जी) कर्मकांड़ गाथा–

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सिद्धों में भोगादि

भोग → प्रति समय आत्मा में ज्ञान/ चैतन्य भाव। उपभोग → वही रस बार-बार समयों में भोगना। जैसे अनार रस पहले घूँट में भोग, बार-बार

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सिद्ध

सिद्ध में न मार्गणा ना ही गुणस्थान, उनके न संयम होता है ना ही असंयम, क्योंकि वे साधना से रहित हो गये हैं। मुनि श्री

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भव्यत्व

वैसे तो भव्यत्व अनादि-सांत है पर एक आचार्य ने सादि-सांत भी कहा है → सम्यग्दर्शन होने पर ही भव्यत्व माना है। आर्यिका श्री विज्ञानमति जी

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विस्रसोपचय

विस्रसोपचय वर्गणायें आत्मा से चिपकी नहीं होतीं बल्कि स्थित होती हैं। इसीलिये तत्त्वार्थ सूत्र में “स्थिता” शब्द का प्रयोग किया है। (विग्रह) गति (एक स्थान

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मंगल आशीष

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