Category: पहला कदम

समवसरण

समवसरण के सभामंडप में सम्यग्दृष्टि या निकट सम्यग्दृष्टि ही जाते हैं, इन्हें भगवान के दर्शन से सम्यग्दर्शन हो जाता है। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

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षट आवश्यक

षट-आवश्यक मुनियों के निवृत्ति रूप, सो भावनात्मक। श्रावकों में प्रवृत्तिरूप सो क्रियात्मक (नोकर्म से जुड़े हुये), पर जघन्य रूप से भावनात्मक तो करें ही वरना

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श्रुत

श्रुत में सब विषय निबद्ध हैं। 11 पूर्व का ज्ञान तो मिथ्यादृष्टि भी कर सकता है। पहला शास्त्र “कषाय पाहुण” – आचार्य श्री गुणधर जी,

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वीतरागता

लवण, इंद्रिय ज्ञान का विषय है, लावण्य अतींद्रिय ज्ञान का। लवण को दूध से दूर रखना, वरना दूध दूर हो जायेगा। वीतरागता आने पर न

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योग

कुछ सिद्धांत ग्रंथों के अनुसार छठवें गुणस्थान तक शुभ तथा अशुभ दोनों योग होते हैं। सातवें गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान तक शुभ योग ही। मुनि

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नारकियों/देवों में कषाय

चारौ कषायें नरकियों/ देवों में अंतर्मुहूर्त तक बनी रहती हैं। देवों में क्रोध सबसे कम, उत्तरोत्तर (संख्यात गुणा) मान, माया, लोभ। यदि क्रोध को 1

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कर्म/भोग भूमि

कर्म-भूमि में चौराहे/ भटकन होती है, इसीलिये माता/ पिता तथा गुरु की आवश्यकता होती है। भोग-भूमि में नहीं, इसीलिये वहाँ माता/पिता बच्चे के पैदा होते

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मूर्ति

मूर्ति बनाने में एकेन्द्रिय जीवों की विराधना तो होती है पर मूर्ति के दर्शन से अनेकों जीव एकेन्द्रिय होने से बच जाते हैं। मुनि श्री

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अंत:कृतांग

यह द्वादशांग का आठवाँ अंग है। इसमें हर तीर्थंकर के काल के दस-दस अंत:कृत केवलियों के उपसर्ग आदि का वर्णन है। जैसे भगवान महावीर के

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मंगल आशीष

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