Category: पहला कदम
सम्यग्दर्शन
सम्यग्दर्शन भाव-प्रणाली है। केवल चर्चा कर ली, वहीं तक सम्यग्दर्शन की परिणति मत रखो। सम्यग्दर्शन के 8 अंगों को प्रयोग में लाइये। आचार्य श्री विद्यासागर
भावना / शक्ति
सोलहकारण भावनाओं में 14 “भावनायें” हैं, “शक्ति” सिर्फ 2 हैं (शक्तितसत्याग और तप)। सद्भावना पहले/ महत्त्वपूर्ण। शक्ति भावना के बाद में। मुनि श्री सुधासागर जी
जघन्य संख्या
जघन्य संख्या 2 से कम नहीं होती। “1” तो गणना के लिये होता है। “1” से किसी भी संख्या का गुणा/भाग करो तो वह संख्या
मन:पर्याप्त्ति
मन की वह योग्यता जिससे अनभूत किये हुये को स्मृति में ला सके। द्रव्य-मन मनोवर्गणाओं से बनता है। भाव-मन द्रव्य-मन से, और भाव-मन काम करता
अरूपी / अमूर्तिक
जल जिस बर्तन में रहता है उसी का आकार ग्रहण कर लेता है, इसका अपना कोई आकार नहीं होता सो अमूर्तिक है। आत्मा भी ऐसी
माया
वेदांत दर्शन में…. संसार माया है, जैन दर्शन में…. मोह से माया है। इसलिये संसार को मोह-माया कहा है। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
निवृत्ति / प्रवृत्ति
सामायिक में निवृत्ति, भाव….”मेरा कोई नहीं”। सामायिक से उठने पर…. “मैत्री भाव सब जीवों से”। भावों में विपरीतता इसलिये क्योंकि प्रवृत्ति में तो हिंसा होती
संज्ञा
भय-नोकषाय कारण है। भय-संज्ञा कार्य है। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
जिनवाणी
आचार्य कुंदकुंद जी ने लिखा है…. गणधर सम्यक् रूप से भगवान की वाणी को गूँथ कर जिनवाणी की रचना करते हैं। सम्यक् यानि सच्चा/ जैसा
संलेखना
संलेखना में प्राय: मायाचारी आ जाती है। “मैं इतना बड़ा साधक हूँ, पूरी कमजोरियाँ बतायीं तो गुरु क्या सोचेंगे!” मुनि श्री सुधासागर जी
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