Category: पहला कदम
मूर्ति-पूजा
जैन-दर्शन में मूर्ति-पूजा नहीं, मूर्तिमान की पूजा है। इसीलिये कबीरदास जी ने जैन-दर्शन की मूर्ति-पूजा पर टिप्पणी नहीं की। निधत्ति/निकाचित कर्म समाप्त हो जाते हैं
धर्म
प्रथमानुयोग –> आचार्य गुणभद्र स्वामी – जीवों की रक्षा – अहिंसा परमोधर्म – वृक्ष के लिये बीज। चरणानुयोग –> आचार्य उमास्वामी – रत्नत्रय – तना।
स्व-समय
पूर्ण रूप से तो स्व-समय में सिद्ध भगवान ही रहते हैं। निज में एकत्व, पर से विभक्त्व। अरहंत भगवान भी चार अघातिया कर्मों का अनुभव
अयश
अयश उदय इससे नहीं माना जायेगा कि लोग बदनामी कर रहे हैं। ऐसी बदनामी तो सती अंजना तथा सीता जी की भी हुई थी। उदय
काल
जो सत्ता, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, षटगुणी हानि-वृद्धि रूप हमेशा स्व तथा सब द्रव्यों में वर्तन कराता है, वही काल है। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (तत्त्वार्थ
मद / कषाय
मद और कषाय में किसी एक मद या एक कषाय आने पर आठों मद या चारों कषाय आ जाती हैं। मुनि श्री मंगलसागर जी
कर्तादि
अहंकार मिथ्या है, क्योंकि सामने वाले का तिरस्कार उसके कर्मों के अनुसार ही होगा। ममकार –> मेरा कुछ है ही नहीं, फिर भी अपना मानना…
आकाश
आकाश में गुरुत्वाकर्षण शक्ति हर जगह बनी हुई है, अलोकाकाश में भी। वह बादर तथा सूक्ष्म पदार्थों को भी प्रभावित करती है। विज्ञान मानता है
जीवाश्च
जीवाश्च… यहाँ “च” से लेना –> जीवरुपी (संसार अवस्था में), अरूपी भी (स्वभाव की अपेक्षा,संसारी अवस्था में भी)। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (तत्त्वार्थ सूत्र –
संस्कार
देव तथा नारकियों के संस्कार अगले भव में भी जाते हैं। अतः नरक से आये जीव पुण्य पर्याय में नहीं जाते। तीर्थंकर इसके अपवाद हैं,
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