Category: पहला कदम
स्व-चतुष्टय
स्वयं का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ही स्व-चतुष्टय है। निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
जैन भूगोल
तिलोइपणत्ति के अनुसार एक प्राकृतिक आपदा (भोगभूमि से कर्मभूमि आते समय पृथ्वी एक योजन(योजन बराबर 2000 कोस) ऊपर उठ गई थी। उससे पृथ्वी गोल हो
भेद-विज्ञान
ज्ञानी को भेद-विज्ञान होता है, अज्ञानी को भेड़-विज्ञान (भेड़ चाल/ जो चलता आ रहा है/ सब कर रहे हैं, बिना विवेक के करते जाना)। (रेनू
व्रतादि
किसी भी कार्य की पूर्णता के लिए चार चीज़ें आवश्यक हैं… सुद्रव्य, सुक्षेत्र, सुकाल, सुभाव इष्टोपदेश(श्लोक 3) में व्रतादि भी बताए हैं। जब चारों चीज़ें
साधुसमाधि / वैयावृत्ति करण
साधुसमाधि –> आपत्ति/ विघ्न दूर करके समाधि (ध्यान की एकाग्रता) में स्थित कराना। रत्नत्रय में व्यवधान दूर करने की भावना। अन्य समय में ऐसा व्यवधान
शब्द
1400-1500 साल पहले श्री राजवार्तिक में आचार्य श्री अकलंकदेव ने कहा था कि शब्द पौदगलिक/ मूर्तिक हैं, उन्हें संग्रह किया जा सकता है। आज वही
सोलह कारण भावना
पहले दर्शन-विशुद्धि भावना भाना आवश्यक नहीं। सोलह भावनाओं में से हर भावना बराबर महत्वपूर्ण है/ स्वतंत्र कारण है तीर्थंकर प्रकृति बंध में। (श्री षट्खंडागम, उनकी
स्व-पर
वस्तु तो “पर” है ही, तेरे भाव भी “पर” हैं क्योंकि वे कर्माधीन हैं। फिर मेरा क्या है ? सहज-स्वभाव* ही तेरा है।…. (समयसार जी)
मिथ्यात्व के कारण
हाथ की चार उंगलियां अविरति आदि तथा अंगूठा मिथ्यात्व के कारण। चारों उंगलियां मिथ्यात्व की सहायक हैं। जब मुट्ठी बँधती* है तब मिथ्यात्व(अंगूठे) को अविरति
तीर्थंकर-प्रकृति बंध
तीर्थंकर-प्रकृति बंध चौथे से सातवें गुणस्थान में (जब पहली बार बंधती है)। यह प्रथमोपशम, द्वितीयोपशम, क्षयोपशम या क्षायिक सम्यग्दृष्टि के बंधती है। एक बार बंधने
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