Category: पहला कदम
वैयावृत्ति
वैयावृत्ति अंतरंग तप में इसलिये क्योंकि यह मानसिकता को ठीक करता है (Ego को शांत करता है)। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
लोभ
परिग्रह का दुरुपयोग – पाप है/ पापानुबंधी पुण्य है। सदुपयोग – पुण्य/ पुण्यानुबंधी पुण्य। निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
कषायी
जो चीज़ तुम्हारी है नहीं, होगी नहीं, फिर भी लेने के भाव, कषायी के; मालिक देना नहीं चाहता फिर भी छीन लेना – अनंतानुबंधी कषायी।
संयम
सुविधायें कम करना संयम है; बढ़ाना/ बढ़ाने का भाव असंयम। मुनि श्री मंगलानंद सागर जी
मूलगुण / परिषह-जय
मूलगुण में अस्नान, परिषह-जय में शरीर पर से मैल (वैयावृत्ति से) हटाने नहीं देना। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
दृष्टि
आपने भगवान की ओर दृष्टि तो की, पर भगवान की दृष्टि जिधर है, उधर नहीं! भगवान की नासा-दृष्टि, आपकी आशा-दृष्टि। आचार्य श्री विद्यासागर जी
उपवास
रात्रि भोजन त्यागी पिछले दिन शाम को उपवास का संकल्प ले तो निर्जरा ज्यादा होगी। उपवास की सुबह संकल्प लेना चलेगा पर निर्जरा कम होगी।
दान
दान-तीर्थ की स्थापना पहले हुई (राजा श्रेयांस द्वारा), धर्म-तीर्थ की बाद में (भगवान आदिनाथ के केवलज्ञान होने पर)। पंचमकाल के अंत में जब दान समाप्त
केवलज्ञान
केवलज्ञान अनादि-निधन होता है, पूर्ण होता है, इसलिये तीर्थंकरों के सिद्धांतों में अंतर नहीं होता, सो दिव्य-ध्वनि भी अनादि-निधन हुई। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
स्वाध्याय
एक आचार्य-प्रणीत ग्रंथ का स्वाध्याय हमेशा चलना चाहिये, क्योंकि इस प्रकार के ग्रंथों से वैराग्य और संवेग बना रहता है। आचार्य श्री विद्यासागर जी
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