Category: वचनामृत – अन्य

परिपक्व

पहले स्कूल में दाखिला उन बच्चों को मिलता था जो एक हाथ से दूसरी ओर का कान पकड़ लें। मुनिराज भी प्रतिदिन 3 बार अपने

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प्रायोगिक धर्म

प्रायोगिक धर्म यानि आंतरिक/ व्यवहारिक धर्म जिसका प्रयोग घर तथा कारोबार में हो। इसके अभाव में मन्दिर में रामायण तथा घर/ कारोबार में महाभारत! इसीलिये

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संकल्प / अभ्यास

ठंडी सहने को संकल्प तथा अभ्यास चाहिये, गर्म खून नहीं। निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी

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कर्म / आत्मा

कर्म सब काम कर रहे हैं, आत्मा तो जानती है, आत्मा करवाती है, कर्म करता है, क्योंकि शक्तियाँ (योग, मन, भाव) आत्मा में ही हैं।

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दर्शन

जीवन की शुरुवात दर्शन से ही होती है। प्रकार… 1. बाह्य…. जो चर्म इन्द्रियों से होता है। 2. अंतरंग… सम्यग्दर्शन*, जिसके लिये गुरु की आवश्यकता

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मन

आचार्य श्री विद्यासागर जी – “अपना मन, अपने विषय में क्यों न सोचता” कैसी बिडम्बना है ! जो मन अपने सबसे करीब है, उसके बारे

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उपकार

“दु:खीजनों को, तज क्यों जाऊँ मोक्ष, मैं सोचता हूँ।” जैसे माँ सबको खिलाकर खाती है, खिलाकर तृप्त हो जाती है। पर माँ तो अपने कुछ

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अंतिम सीख

ऐसे मरीज़ों को क्या सीख दें जिनका अंत निश्चित/ करीब हो ? डॉ. पी. एन. जैन ऐसी बीमारियाँ/ स्थिति आने का मतलब है …उनका पुण्य

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जन्म/मरण के परे

मोटी सी किताब में यदि बीच में एक ही पन्ना हो, पहले तथा बाद के सारे पन्ने फटे हों तो ज़िज्ञासा तो होगी न !

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समझदार

समझदार वह, जिसकी आँखें सामने वालों की बंद होती आँखें देखकर खुल जायें। मुनि श्री विशालसागर जी

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मंगल आशीष

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