Category: वचनामृत – अन्य
जीवन
जीवन एक खेल है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम खिलाड़ी बनें या खिलौना ! निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
समस्या / व्यवस्था
समस्या को व्यवस्था में बदल लें/ कर लें, तो समस्या, समस्या नहीं रहती/ दु:ख नहीं होता। जैसे कांटा लगा (समस्या), सुई की व्यवस्था की, कांटा
इच्छा / सुख
इच्छाओं के अभाव मात्र से सच्चा सुख नहीं मिलता। अभाव तो लौमड़ी को भी था, कहती थी….अंगूर खट्टे हैं। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
लक्ष्य
जीवन का लक्ष्य मनोरंजन नहीं, रमण है; बाह्य रमण (विषय-भोगों में) अधोगमन कराता है,पर गिरना ध्येय कैसे हो सकता है! अंतरंग/ आत्मा में रमण उर्ध्वगमन
परिपक्व
पहले स्कूल में दाखिला उन बच्चों को मिलता था जो एक हाथ से दूसरी ओर का कान पकड़ लें। मुनिराज भी प्रतिदिन 3 बार अपने
प्रायोगिक धर्म
प्रायोगिक धर्म यानि आंतरिक/ व्यवहारिक धर्म जिसका प्रयोग घर तथा कारोबार में हो। इसके अभाव में मन्दिर में रामायण तथा घर/ कारोबार में महाभारत! इसीलिये
संकल्प / अभ्यास
ठंडी सहने को संकल्प तथा अभ्यास चाहिये, गर्म खून नहीं। निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
कर्म / आत्मा
कर्म सब काम कर रहे हैं, आत्मा तो जानती है, आत्मा करवाती है, कर्म करता है, क्योंकि शक्तियाँ (योग, मन, भाव) आत्मा में ही हैं।
दर्शन
जीवन की शुरुवात दर्शन से ही होती है। प्रकार… 1. बाह्य…. जो चर्म इन्द्रियों से होता है। 2. अंतरंग… सम्यग्दर्शन*, जिसके लिये गुरु की आवश्यकता
मन
आचार्य श्री विद्यासागर जी – “अपना मन, अपने विषय में क्यों न सोचता” कैसी बिडम्बना है ! जो मन अपने सबसे करीब है, उसके बारे
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