Category: पहला कदम
तीर्थंकर भारत में
तीर्थंकर भारत में ही क्यों ? तीर्थंकर पुण्यात्माओं का कल्याण करने को बनते हैं (अपने कल्याण के साथ-साथ), अवतारवाद से भिन्न, जो पापियों का नाश
सम्यग्दर्शन / मिथ्यादर्शन
निरपेक्ष समझ –> सम्यग्दर्शन। सापेक्ष समझ –> मिथ्यादर्शन। इंद्रिय सापेक्ष जैसे शिखर जी की वंदना में पहले मोटे कपड़े प्रियकर, बाद में बोझ। यानी सुख
अभ्यास
कराटे में 1000 actions खतरनाक नहीं, वह एक खतरनाक होता है जिसका अभ्यास 1000 बार किया गया हो। जैसे भरत चक्रवती गृहस्थ जीवन में लगातार
लोक
जैन दर्शन में लोक, जीव तथा अजीव से मिलकर बना है (जीवमजीवं दव्वं – द्रव्य संग्रह)। विज्ञान भी यही मानता है बस नाम देता है
सल्लेखना
योद्धा दुश्मन को जीतने के लिये तन, मन, वचन सब लगाकर जीत तो लेता है पर उसका इहभव और परभव द्वेषपूर्ण होते हैं। क्षपक सब
संस्कार
संस्कार बुरे भी होते हैं। अवगुण बढ़ने को वर्धमान कह सकते हैं पर आत्मकल्याण के परिप्रेक्ष्य में हीयमान ही कहेंगे। मुनि श्री मंगल सागर जी
एकत्व
जीव अकेला ही कर्म करता है और अकेला ही संसार में हिंडोले की तरह भ्रमण करता रहता है। अकेला ही पैदा होता है, अकेला ही
अनुयोग
बनती हैं भूमिकायें – प्रथमानुयोग से, आतीं हैं योग्यतायें – करुणानुयोग से, तब पकती पात्रतायें – चरणानुयोग से, फिर आत्मा झलकती – द्रव्यानुयोग से। मुनि
अशुद्ध आत्मा
अशुद्ध आत्मा तो अजीव से भी बदतर! अजीव तो अपने स्वभाव/ गुणों को बनाये रखते हैं। अशुद्ध आत्मा स्वभाव/ गुणों का घात कर देती है।
मंत्र
मंत्र का एक अक्षर कम/ ज्यादा/ गलत होने से सिद्धि नहीं होती लेकिन अंजन चोर को तो णमोकार मंत्र आता ही नहीं था,उसे कैसे सिद्धि
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