Category: पहला कदम
ज्ञान
ज्ञान निष्क्रय गुण है। ज्ञानी द्रव्य (Matter) है। ज्ञान आकुलता देता है, इसलिये ज्ञानी नहीं ज्ञायक बनें। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
कर्म
1. निषिद्ध कर्म…संक्लेष भाव/ पाप कर्म। 2. काम कर्म…. संसारिक, अहंकार सहित। 3. विशुद्ध कर्म….धार्मिक/ सहज जैसे माँ संतान के लिये करतीं हैं, इनसे निर्जरा
सम्यग्दर्शन
1 से 3 गुणस्थान में अधर्म क्योंकि सम्यग्दर्शन नहीं है। शील/ महाव्रत/ अखंड ब्रम्हचर्य, सब द्रव्य संयम, एक जन्म के; सम्यग्दर्शन (भावात्मक) जन्मजन्मांतरों का। ज्ञान
आहारक
आहारक क्यों कहा ? आहार में ग्रहण (भोजन का), आहारक में ज्ञान का ग्रहण (शंका समाधान करके)। संदेह होते हुए भी निशंकित अंग कैसे बना
रूपी / मूर्तिक
मूर्ति स्थिर होती है, सो जिसका आकार स्थिर हो वह मूर्तिक। आत्मा → अमूर्तिक (आकार बदलता रहता है, पर्यायों के अनुरूप); अरूपी (सूक्ष्मता तथा स्वभाव
वेद-वैषम्य
द्रव्य-वेद तो पुण्य/ पाप से मिलता है। भाव-वेद नोकषायों/ वेदों में लिप्तता से, जिस वेद में रुचि, वही भाव-वेद मिलेगा। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (जीवकाण्ड-
योग / क्रिया
कई क्रियायें एक साथ दिखतीं हैं जैसे पूजा करते समय, पर योग एक समय पर एक ही होगा। क्रिया लम्बे समय तक की होती है,
ग्रंथ
छह ढ़ालादि की शुरुवात नरक के वर्णनों से क्यों ? नीचे से ऊपर प्रगति का प्रतीक होता है। (कहा है…भीति से प्रीति, यहाँ धर्म से)
आहारक ऋद्धि
आहारक ऋद्धि में आहारक कर्म का बंध/ उदय होता है। अन्य ऋद्धियों में तप से विशेष शक्तियाँ आतीं हैं। 48/64 ऋद्धियों में आहारक ऋद्धि नहीं
उपांग
उपांग में उँगली, नाक, कानादि के अलावा अंतरंग अवयव भी आते हैं, जैसे हृदय, आँख की अंतरंग रचना आदि। निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
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