Category: पहला कदम
दिगंबरत्व / अचेलकत्व
दिगंबरत्व मुनियों के मूलगुणों में (21) तथा अचेलकत्व शेष गुणों (7) में। दोनों का अर्थ एक सा होते हुए भी दिगंबरत्व बाह्य तथा अचेलकत्व अंतरंग(आसक्ति
सहनशक्ति की सीमा
सहनशक्ति की सीमा आगमानुसार 10 भव है जो भगवान पार्श्वनाथ के पूर्व के भवों में देखी जाती है। निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
व्यवहार से निश्चय
व्यवहार से निश्चय की यात्रा …. मैं मामा/ चाचा –> जैन –> मनुष्य –> शरीर –>मैं आत्मा हूँ। चिंतन
स्वभाव / विभाव
जीव का स्वभाव तो दया है तो हिंसक पशुओं में कैसे घटित करेंगे ? पर्यायगत विभाव को स्वभाव कहने लगे हैं। (मनुष्य पर्याय से अहिंसक
विभाव / स्वभाव
विभाव – जिसमें चाह कर भी लगातार/ बहुत देर नहीं रह सकते, तात्कालिक। स्वभाव – न चाहते हुए भी उस स्थिति में वापस आना पड़े,
आचार्य उमास्वामी
तत्त्वार्थ सूत्र के रचयिता आचार्य उमास्वामी के नाम में “उमा” उनकी माँ तथा “स्वामी” उनके पिता का नाम है। माता-पिता को सम्मान देने का यह
अनंतता
अनंत तो बहुत स्थानों पर प्रयोग होता है पर उनमें भी छोटा-बड़ा घटित होता है। जैसे जीव अनंत, पर पुद्गल अनंतानंत, काल उससे भी बड़ा
सम्यग्दर्शन
छह द्रव्यों पर श्रद्धा से सम्यग्दर्शन कैसे ? 6 द्रव्यों में अरूपी भी, उस पर श्रद्धा यानी केवलज्ञान/ ज्ञानी पर श्रद्धा। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
परिणाम
परिणाम दो प्रकार के –> अनादि परिणाम → अनादि से उसी रूप चल रहे हैं जैसे सुमेरु पर्वत। ये पकड़ में नहीं आते। सादि परिणाम
मूर्तिमान-दर्शन
यदि “जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय” अर्घ्य पढ़ते समय मूर्ति में मूर्तिमान के दर्शन हो जायें, तो अकाल मरण टल जाता है। ऐसे ही “संसार-ताप-विनाशनाय” अर्घ्य के समय दर्शन
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