Category: पहला कदम

सोलह कारण भावना

पहले दर्शन-विशुद्धि भावना भाना आवश्यक नहीं। सोलह भावनाओं में से हर भावना बराबर महत्त्वपूर्ण है/ स्वतंत्र कारण है तीर्थंकर प्रकृति बंध में। (श्री षट्खंडागम, उनकी

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स्व-पर

वस्तु तो “पर” है ही, तेरे भाव भी “पर” हैं क्योंकि वे कर्माधीन हैं। फिर मेरा क्या है ? सहज-स्वभाव* ही तेरा है।…. (समयसार जी)

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मिथ्यात्व के कारण

हाथ की चार उंगलियां अविरति आदि तथा अंगूठा मिथ्यात्व के कारण। चारों उंगलियां मिथ्यात्व की सहायक हैं। जब मुट्ठी बँधती* है तब मिथ्यात्व(अंगूठे) को अविरति

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तीर्थकर प्रकृति बंध

तीर्थंकर प्रकृति बंध चौथे से सातवें गुणस्थान में (जब पहली बार बंधती है)। यह प्रथमोपशम, द्वितीयोपशम, क्षयोपशम या क्षायिक सम्यग्दृष्टि के बंधती है। एक बार

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कषाय

कषाय = कष (संसार) + आय (Income) कषाय = जो सांय-सांय करे। मुनि श्री मंगलसागर जी

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विसंवाद

विसंवाद…. अन्यथा प्रवृत्ति कराना/ मिथ्यामार्ग पर लगा देना/ दुर्व्यवहार/ ग़लत को सही ठहराना जैसे अंडा शाकाहारी होता है। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (तत्त्वार्थ सूत्र –

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सम्यग्दर्शन

यदि सम्यग्दर्शन को बंध (देवायु) का कारण मानें तो मुक्ति का क्या कारण मानें ? दोनों कारण मानने में भी आपत्ति नहीं, जैसे छाता गर्मी

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वर्तमान

वर्तमान ही मेरा है। भूत और भविष्य तो “पर” हैं। भूत अटकाने वाला, भविष्य भटकाने वाला। वर्तमान में स्थिरता है। चिंतन

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दिगम्बरत्व / अचेलकत्व

दिगम्बरत्व मुनियों के मूलगुणों में (21) तथा अचेलकत्व शेष गुणों (7) में। दोनों का अर्थ एक सा होते हुए भी दिगम्बरत्व बाह्य तथा अचेलकत्व अंतरंग(आसक्ति

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सहनशक्ति की सीमा

सहनशक्ति की सीमा आगमानुसार 10 भव है जो भगवान पार्श्वनाथ के पूर्व के भवों में देखी जाती है। निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

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मंगल आशीष

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