Category: पहला कदम
लोकांतिक देव
वैसे तो लोकांतिक देव कोई भी मनुष्य बन सकता है। पर आचार्य श्री कुंदकुंद जी के अनुसार ऐसे विशुद्ध भाव मुनि ही रख सकते हैं।
भव्य / भद्र
भव्यपना, अनुभूति में नहीं। भद्रपना (क्रूर का विपरीत) अनुभूति में आता है। कल्याण दोनों के होने पर ही। मुनि श्री प्रणम्य सागर जी (तत्त्वार्थ सूत्र-
जिन दर्शन / पूजा
जिन दर्शन जैनों का लक्षण है। जिन पूजा जैनों का आवश्यक। मुनि श्री सुप्रभसागर जी
अनेकांतवाद / अहिंसा
अनेकांतवाद वैचारिक स्तर पर अहिंसा है और स्याद्वाद भाषा के स्तर पर। काया के स्तर पर अहिंसा जीवरक्षा का रूप लेती है। कमलकांत
9 लब्धि
भोग तथा उपभोग लब्धियाँ पूर्णतया तीर्थंकरों को ही होती हैं। सामान्य केवलियों के भी पूरी 9 लब्धि होती हैं, पर अंतरंग। मुनि श्री प्रणम्य सागर
प्रातिहार्य / मंगल
प्रातिहार्य भगवान के लिए होते हैं। उनके अतिशय से भी होते हैं। ये सदा अरहंत भगवान/ मूर्ति के पास/ साथ रहते हैं। आठ मंगल* मूर्ति
बंधन
प्रायः संसारी जीव आश्रित रहना चाहता है, बंधन स्वीकारता है, कर्म बंध करता है। शांतिपथप्रदर्शक पर, विडम्बना यह है कि बंधन में आनंद लेने लगता
क्रियायें
प्रकार → 1. पाप क्रिया → सर्वथा हेय/ अशांति का कारण/ कर्म धारा रूप 2. पापानुबंधी-पुण्य क्रिया → मिश्र, मसाले जैसा पुण्य/ पाप, 3. पुण्यानुबंधी-पाप
एकेंद्रिय
एक इंद्रिय जीवों के लिये भी → वीर्यांतराय + मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम + शरीर नामकर्म तथा जाति नामकर्म के उदय लगते हैं। सब में प्रवृत्तियाँ
गति / गत्यानुपूर्वी
जीव के वर्तमान को चलाता है गति नामकर्म। गत्यानुपूर्वी जीव को विग्रह गति में चलाता है। (लेकिन पर्याप्तक होने पर इसका उदय बंद हो जाता
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