Category: पहला कदम
परिहार-विशुद्धि
परिहार-विशुद्धि मुनिराजों के 6-7 गुणस्थान में ही क्यों ? आगे के गुणस्थानों में क्यों नहीं ?? क्योंकि वे हमेशा प्रवृत्ति में ही रहते हैं। मुनि
तीर्थंकर के निहार
तीर्थंकर के निहार नहीं, कैसे समझें ? लकड़ी जलाने पर राख, उतना कपूर जलाने पर ?? आचार्य श्री विद्यासागर जी
पाप/पुण्य प्रकृति
पुण्य प्रकृति – 42 (सातादि + 37 नामकर्म की)। पाप प्रकृति – 82 लगभग डबल, इसीलिये सबल हैं। मुनि श्री प्रमाण सागर जी
कषाय मार्गणा
चारों कषाय 1 से 9/10वें गुणस्थान तक रहतीं हैं। क्रोध, मान, मायाचारी 9वें गुणस्थान के क्रमश: 2, 3, 4थे भाग तक। लोभ 10वें गुणस्थान तक।
देवों का अवधिज्ञान
देवों का अवधिज्ञान कैसा ? योगेन्द्र देवों का अवधिज्ञान स्थिर होता है, उनके क्षयोपशम में भी ज्यादा कमी/ बढ़ोतरी नहीं होती। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
रूप
पुत्र कागज़ पर लिखा…शब्दरूप; सामने खड़ा……………द्रव्य रूप। इससे काम नहीं चलेगा। जब उसे “ज्ञान रूप” मानोगे तब भला होगा। ऐसे ही आत्मा को शब्द, द्रव्य
अभव्य-सिद्ध
अभव्य को अभव्य-सिद्ध कहा यानी अभव्य दशा में सिद्धि है। (सिद्धि = जो जिस रूप में है, उसी रूप रहेगा) ऐसे ही यदि अज्ञान में
स्कंध / वर्गणा
वर्गणा में Pattern होता है। वर्ग एक समान शक्ति/संख्या वाले अणुओं को ग्रहण एक – एक अणु बढ़ाते-2 अनंत तक भी जा सकते हैं पर
लक्ष्मण-रेखा
सीता जी ने लक्ष्मण-रेखा की वजह से कितना कष्ट उठाया। हम घर में कीड़े-मकोड़ों के लिये आये दिन लक्ष्मण-रेखा खींचते रहते हैं। कितने जीवों को
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