Category: पहला कदम

रस-परित्याग

“परि” का प्रयोग “परिचय” आदि में होता है। लगता है… जाने पहचाने रसों के त्याग के लिये प्रयोग हुआ है। चिंतन

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बुद्ध

बुद्ध 2 प्रकार के – 1) प्रत्येक बुद्ध – जो स्वयं ज्ञान प्राप्त करते हैं। 2) बोधित बुद्ध – जो पर-उपदेश से प्राप्त करते हैं।

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परिहार-विशुद्धि

परिहार-विशुद्धि मुनिराजों के 6-7 गुणस्थान में ही क्यों ? आगे के गुणस्थानों में क्यों नहीं ?? क्योंकि वे हमेशा प्रवृत्ति में ही रहते हैं। मुनि

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धर्म

धर्म जो बहिरात्मा से अंतरात्मा बनाये। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

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तीर्थंकर के निहार

तीर्थंकर के निहार नहीं, कैसे समझें ? लकड़ी जलाने पर राख, उतना कपूर जलाने पर ?? आचार्य श्री विद्यासागर जी

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पाप/पुण्य प्रकृति

पुण्य प्रकृति – 42 (सातादि + 37 नामकर्म की)। पाप प्रकृति – 82 लगभग डबल, इसीलिये सबल हैं। मुनि श्री प्रमाण सागर जी

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कषाय मार्गणा

चारों कषाय 1 से 9/10वें गुणस्थान तक रहतीं हैं। क्रोध, मान, मायाचारी 9वें गुणस्थान के क्रमश: 2, 3, 4थे भाग तक। लोभ 10वें गुणस्थान तक।

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देवों का अवधिज्ञान

देवों का अवधिज्ञान कैसा ? योगेन्द्र देवों का अवधिज्ञान स्थिर होता है, उनके क्षयोपशम में भी ज्यादा कमी/ बढ़ोतरी नहीं होती। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

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रूप

पुत्र कागज़ पर लिखा…शब्दरूप; सामने खड़ा……………द्रव्य रूप। इससे काम नहीं चलेगा। जब उसे “ज्ञान रूप” मानोगे तब भला होगा। ऐसे ही आत्मा को शब्द, द्रव्य

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अभव्य-सिद्ध

अभव्य को अभव्य-सिद्ध कहा यानी अभव्य दशा में सिद्धि है। (सिद्धि = जो जिस रूप में है, उसी रूप रहेगा) ऐसे ही यदि अज्ञान में

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मंगल आशीष

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