Category: पहला कदम
संस्कार
देव तथा नारकियों के संस्कार अगले भव में भी जाते हैं। अतः नरक से आये जीव पुण्य पर्याय में नहीं जाते। तीर्थंकर इसके अपवाद हैं,
प्रायश्चित
‘प्रायः’ से सन्यास + ‘चित्त’ से मन (श्री रयणसार जी)। यानी मन में सन्यास भाव होंगे तभी प्रायश्चित्त होगा। कुली (बोझा ढोने वाला) नहीं, यात्री
सहनन / देवगति
वज्र वृषभनाराच सहनन वाले सर्वार्थसिद्धि तक, वज्रनाराच सहनन + नाराच सहनन 9 ग्रैवेयक तक, अर्द्ध नाराच सहनन वाले 16 स्वर्ग तक, कीलक सहनन वाले 12
पंचम काल
पंचम काल में ज्यादातर एक आँख वाले ही पैदा होते हैं, छठे काल में अंधे। पहली आँख की रोशनी से सम्यग्दर्शन/ अष्टमूल गुण पालन, दूसरी
चारित्र
भगवानों के वर्धमान चारित्र होते हैं। पंचमकाल में हीयमान। पर आचार्य श्री विद्यासागर जी के समय में तो वर्धमान दिख रहा है ? आचार्य श्री
समवसरण व्यवस्था
आचार्य कुंदकुंद के अनुसार आर्यिकाओं को दीक्षा नहीं दी जाती। इसीलिये उन्हें श्राविकाओं के कोठे में बैठाया जाता है। देवियों को अलग-अलग कोठों में इसलिये
शुद्ध/अशुद्ध द्रव्य
जीव क्रियावान, पुद्गल भी क्रियावान क्योंकि उसमें अणु से स्कंध तथा स्कंध से अणु बनते रहते हैं। इसीलिये दोनों अशुद्ध। बाकी चारों द्रव्य क्रियावान नहीं
मनोवर्गणाएँ
मनोवर्गणाएँ द्रव्य-मन में उपादान कारण हैं। भाव-मन नोइंद्रियावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न ज्ञान की परिणति है, जिससे स्मृति/ विचार क्षमता आती है। मुनि श्री प्रणम्यसागर
परिचय
मेरा/ हम सब का सही परिचय… स्व-चतुष्टय है। जो इस पर विश्वास करते हैं वे सम्यग्दृष्टि होते हैं। हमारी कार्मण वर्गणायें भी अपने-अपने चतुष्टय में
धर्माधर्मयोः कृत्स्ने
धर्माधर्मयोः कृत्स्ने… धर्म अधर्म एक-एक होते हुए भी पूरे लोकाकाश में पूर्ण रूप से व्याप्त हैं, जैसे तिल में तेल। अन्य द्रव्यों का ऐसा नहीं
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