Category: पहला कदम

अशुद्ध आत्मा

अशुद्ध आत्मा तो अजीव से भी बदतर! अजीव तो अपने स्वभाव/ गुणों को बनाये रखते हैं। अशुद्ध आत्मा स्वभाव/ गुणों का घात कर देती है।

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मंत्र

मंत्र का एक अक्षर कम/ ज्यादा/ गलत होने से सिद्धि नहीं होती लेकिन अंजन चोर को तो णमोकार मंत्र आता ही नहीं था,उसे कैसे सिद्धि

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ऊर्जा

देवता थोड़ा सा ग्रहण करके लम्बी अवधि तक शरीर को चलाते हैं, भगवान बिना खाने पिये वातावरण से नोकर्म वर्गणायें ग्रहण करके। मनुष्य/ तिर्यंच थोड़ी

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शरीर परिग्रह

ऊपर-ऊपर के देवों में शरीर तथा परिग्रह हीन होते जाते है (तत्त्वार्थ सूत्र – 4/21)। उसमें परिग्रह से पहले शरीर लिया। कारण ? 1. शरीर

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पाप

पाप तो बुरा ही है → निश्चय से, सापेक्षत: भी बुरा है → व्यवहार से। चिंतन

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द्रव्य

द्रव्य गुणों को हमेशा बनाये रखता है, इसलिए नित्य है। साधारण/ सामान्य गुण = अस्तित्व, द्रव्यत्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व* आदि। विशेष गुण = जैसे जीव में

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वस्तु-स्वभाव: धर्म:

वस्तु का स्वभाव ही धर्म है*। पर स्वभाव तो बदलता रहता है तो क्या धर्म भी बदलता रहता है ? धर्म 2 प्रकार का –>

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जीवाश्च

सूत्र… यानी जीव भी द्रव्य हैं। “च” से जीव रूपी व अरूपी भी। बहुवचन का प्रयोग –> एक जीव नहीं वरना “एको ब्रह्म” हो जायेगा।

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सापेक्षवाद

द्रव्य वह जो अंतरंग तथा बाह्य निमित्तों के माध्यम से अपने अस्तित्व को बनाये रखे, चाहे वह शुद्ध द्रव्य ही क्यों न हो। परिणमन दूसरे

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समय

जो लोग कहते हैं कि समय नहीं है, वे आत्मा के अस्तित्व को नकारते हैं। क्योंकि “समय” तो “आत्मा” को कहते हैं। विद्वत श्री संजीव

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मंगल आशीष

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