Category: पहला कदम

सुखी / दु:खी

आत्मा का स्वभाव सुखी रहना है, तब प्रायः दु:खी क्यों ? क्योंकि प्रायः हम सब दूसरी आत्माओं को अपने नियंत्रण में करने की कोशिश में

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दृष्टि

जिसकी दृष्टि दिव्य-रत्नों पर हो उसे साधारण रत्नों को छोड़ने में देरी नहीं लगती। फिर उनकी पूजा रत्नों से होने लगती है। आचार्य श्री विद्यासागर

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गति

गति = जीव की अवस्था विशेष। 4 गति – संसारी/कर्मों के सदभाव में, 5वीं मोक्ष/कर्मों के अभाव। कमलाबाई जी

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क्षेत्र का महत्व

सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आर्यखंड में ही हो सकता है, म्लेच्छखंड में नहीं। यदि हमने रत्नत्रय की उपेक्षा की तो अगले भव में म्लेच्छखंड ही मिलेगा।

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द्रव्य/भाव कर्म

लालटेन की चिमनी पर कालिख → भाव कर्म (औदायिक/ रागद्वेष)। पहले इन्हें साफ करना होगा । तब लौ पर लगी किट्टिका → द्रव्य-कर्म को ध्यानादि

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सासादन

“स” = सहित + “आसादन” = विराधना सासादन के साथ सम्यग्दर्शन लगा है क्योंकि मिथ्यादृष्टि नहीं है। सम्यग्दर्शन(प्रथमोपशम/ द्वितीयोपशम) जैसी ऊंचाई से गिरा है सो

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जरायुज

भोगभूमज तथा तीर्थंकर गर्भज-जरायुज होते हैं। पर गर्भ से बाहर आने पर “जरायु*” नहीं रहता। मुनि श्री सुधासागर जी * जन्म के समय बच्चों पर

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निगोदिया की पर्याप्ति

अनंत निगोदिया एक समय में आहार शुरू करेंगे तथा एक साथ पूर्ण भी। ऐसे ही दूसरे आदि समयों में अन्य-अन्य अनंत-अनंत जीव पर्याप्ति शुरु/ पूर्ण

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निगोद

साधारण नामकर्म के उदय से निगोद (नि = नियम से + गोद = क्षेत्र), अर्थात् जिस क्षेत्र में नियम से अनंत जीवों का वास हो

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उत्कर्षण

उत्कर्षण नीचे के निषकों के परमाणुओं को उपांतरित* (ऊपर के) निषेकों में मिलाने को कहते है। अपकर्षण उसका विपरीत। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी *संशोधित

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मंगल आशीष

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