Category: पहला कदम

सम्यग्दृष्टि

हर संसारी जीव में स्वभाव तथा विभाव का मिश्रण होता है। जिसमें स्वभाव की बहुलता रहती है, वह सम्यग्दृष्टि। ब्र. डॉ. नीलेश भैया

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संघ

रत्नत्रय से युक्त एक मुनि भी संघ होता है क्योंकि रत्नत्रय में तीन हैं। संघ –> ऋषि (ऋद्विधारी), मुनि (अवधि/ मन:पर्यय/ केवलज्ञानी), यति (मूल/ उत्तर

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केवली में धातुऐं

केवली में धातुऐं स्थिर होती हैं। इसलिए शरीर के लिए कुछ करना* नहीं होता है। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (तत्त्वार्थसूत्र 6/13) * कवलाहार

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दंड

मन, वचन, काय की दुष्प्रवृत्ति को दंड कहते हैं। इसी से तीन भेद कहे गये हैं। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (शंका समाधान – 46)

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निजपद

निजपद दीजै मोहि….. 1. निजपद = भगवान का पद 2. निजपद = निज (स्वयं) + पद (पैर) = अपने पैरों पर खड़ा होना/ स्वावलम्बी होना।

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ॐ अर्हम्

ॐ तथा अर्हम् दोनों परमेष्ठी के प्रतीक, फिर क्या Repetition मानें ? नहीं, ॐ शक्ति का प्रतीक जबकि अर्हम् , शुद्धि/ शांति/ सिद्धी(सिद्ध) का प्रतीक।

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भगवान के वृक्ष

भगवान जिस वृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त करते हैं उसमें न फल होते हैं न फूल। मुनि श्री मंगलानंद सागर जी

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पूत

पूत यानी पुण्य। इससे ही बना होगा “सपूत”। तभी तो बच्चे के बारे में पूछते हैं – “ये किनका पुण्य है ?” पर कपूत के

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निर्वतना

निर्वतना यानि रचना, दो प्रकार – 1. मूलगुण निर्वतना – शरीर, वचन, मन की। जैसे Face की Plastic Surgery, वचन की नकल, अलौकिक शक्ति पाने

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निन्हव

ज्ञान छुपाने के अलावा, यदि पति गलत कामों से पैसा कमाता है पर पत्नि रोकती नहीं, बच्चों को अभक्ष्य खाने से रोकते नहीं वरना हम

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मंगल आशीष

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